चेन्नई नगर के सभी सम्माननीय नागरिक बंधु,
बहनों,
मैं
बहुत आभारी हूँ आप सभी का, और विशेष रूप से श्री शोभा कांत जी का,
प्रदीप
भाई का, निरंजन भाई का, मेघानी भाई का.. इन सब का बहुत आभारी
हूँ, क्योंकि इन सभी की प्रेरणा से मुझे आपके बीच में एक ऐसे विषय पर बात
करने का मौका मिला, जिन विषयों पर मैं पहले बात नहीं करता था ।
हमारी जो चिकित्सा और स्वास्थ्य का विषय है इस पर बात करने की प्रेरणा मुझे पिछले
३ - ४ साल पहले हुई, जब मैंने भारत के स्वास्थ्य मंञी को एक पञ लिखा
था, ये जानने के लिए की हमारे देश के लोगों की स्वास्थ्य की स्थिति क्या
है । हमारे देश की सरकार हर दस-दस साल में एक जनसंख्या की गणना कराती है, जिसे
सेन्सस कहते है हमारे देश में । जब सेन्सस होता है तब ये भी गणना की जाती है कि,
कितने
लोग बीमार है, किन को क्या-क्या बीमारी है और कितने लोग
स्वस्थ है, कितने आधे स्वस्थ है । तो मैंने लगभग आज से चार
साल पहले एक पञ लिखा था स्वास्थ्य मंञी को और उसमें एक ही प्रश्न पूछा था कि,
भारत
के लोगों की स्वास्थ्य की स्थिति क्या है ? तो हमारे देश के
मंञी महोदय के सचिव ने (सेक्रेटरी ने) उत्तर दिया कि, देश के लोगों के
स्वास्थ्य की जो स्थिति है, उसके बारे में हम आपको पूरा डाटा भेज
रहे है, आप उसका अध्ययन करके खुद अंदाजा लगा लीजिए । तो सरकार ने मुझे जो
डाटा भेजा था वह एक - दो पन्ने का नहीं था । वह काफी ६००-७०० पन्ने का मोटा सा एक
पुलिंदा था, उसमें जो सेन्सस की रिपोर्ट हुई, वह
पूरी उन्होंने लिखी थी, वह पढ़कर मुझे बहुत परेशानी हो गयी, परेशानी
क्या हो गयी की, उसमें उन्होंने बताया की लगभग ११२ करोड़ लोग इस
देश में रहते है, और ११२ करोड़ लोगों में स्वस्थ लोगों की संख्या
गिनती की २५ से ३० करोड़ है बस । २५ से ३० करोड़ लोग ऐसे हे इस देश में की जिन को
स्वस्थ कहा जा सकता है । जिन को किसी तरह का कोई रोग नहीं है, शारीरिक
रूप से भी और मानसिक रूप से भी । बाकी जितने भी लोग है सभी को कुछ न कुछ तकलीफ़ें
है । जैसे भारत सरकार के विशेषज्ञों ने ये कहा की, ५ करोड़ लोग इस
देश में ऐसे है जिन को डायबिटीज है, मधुमेह है, खराब बीमारी है
। दुनिया के ज्यादातर डॉक्टर कहते है की ये जल्दी ठीक न होने वाली बीमारी है । और
ये ५ करोड़ लोगों को हो गयी है और विशेषज्ञ ये कहते है उस रिपोर्ट में की अगर यही
गति और रफ्तार से डायबिटीज बढ़ती गयी तो अगले २०१४ तक लगभग १० से १२ करोड़ लोगों
को ये होगी। फिर उस रिपोर्ट में उन्होंने कहा है की १२ से १३ करोड़ लोग ऐसे है जिन
को लंग्स इन्फेक्शन की भिन्न भिन्न बीमारियों है जैसे दमा है, अस्थमा
है, साँस फूलती है, ब्रोंकिअल अस्थमा है, १५
से १६ करोड़ लोग ऐसे हे जिन्हें घुटनों का दर्द, कमर दर्द,
हड्डियों
का दर्द जिसे आप संधिवात कहते है सरल भाषा में, ये हड्डियों के
जोड़ों की बीमारी है । फिर उस रिपोर्ट में बताया गया है की, ५ से १० करोड़
लोग है जिन को पेट की कुछ न कुछ तकलीफ है । जिन को पित्त की बिमारियों के द्वारा
हम अकसर परिभाषित करते है । गैस बनाना, एसिडिटी होना, हाईपर एसिडिटी
वगैरह वगैरह.. और ये सब मैं पढ़ता गया और एक जगह लिखा था रिपोर्ट में, बहुत
परेशान करने वाली बात की, २० से २२ करोड़ लोग है जिन को आंखों की
कुछ न कुछ बीमारी है, या तो कम दिखता है, या बिलकुल नहीं दिखता,
रात
को नहीं दिखता, दिन में दिखता है तो रंग का अंतर पता नहीं चलता
। हम अँग्रेज़ी में उसको नाईट बलाइंडनेस या कलर बलाइंडनेस या ग्लूकोमा जैसी
बिमारियों से परिभाषित करते है और ये पढ़ते पढ़ते मैं परेशान होता गया । अंत में
रिपोर्ट के आखिरी हिस्से में सरकार के ही तरफ से ये बताया गया था की ये सब
बीमारियाँ तो है और सरकार इनके लिए क्या प्रयास कर रही है । हर साल केंद्र सरकार
का बजट है इन बिमारियों को ठीक करने के लिए वह करीब ९६,००० करोड़
रुपयों का है परोक्ष या प्रत्यक्ष मिलाकर, डायरेक्ट और इनडायरेक्ट । फिर राज्य सरकारों के अलग अलग
बजट है, उन्होंने बताया की जैसे तमिलनाडु की राज्य सरकार का बजट ३५,०००
करोड़ रुपये है । आंध्र प्रदेश की सरकार का बजट २८,००० करोड़
रुपयों का है, ऐसे अलग-अलग राज्य की सरकारों का बजट है ।
केंद्र सरकार का बजट और राज्य सरकार का बजट दोनों मिलाकर मैंने औसत निकाला तो लगभग एक - सवा लाख करोड़ का खर्चा है सरकार की
तरफ से । ये पूरी रिपोर्ट पढ़ने के बाद और एक हिस्सा है रिपोर्ट का की भारत की
सरकार कहती है विभिन्न बीमारियों का इलाज करने के लिए इस देश में जो डॉक्टरों की
संख्या है, जो रजिस्टर्ड है, वह २३ लाख है । MBBS,
MDMS, BAMS, माने आयुर्वेद के और BHMS होमियोपैथी के, तीनों विधाओं,
होमियोपैथी,
आयुर्वेद
और अलोपॅथी तीनों मिलाकर सरकार कहती है की २३ लाख डॉक्टर है जो रजिस्टर्ड है
।
अब २३ लाख डॉक्टरों और लगभग ७० से ७५ करोड़
मरीज या बल्कि ८० करोड़ मरीज मैंने हिसाब निकाला की एक डॉक्टर कितने लोगों का इलाज
कर सकता है । अगर ईमानदारी से कोई डॉक्टर सवेरे से शाम तक, सवेरे ९ बजे से
शाम ९ बजे तक क्लिनिक में काम करे तो ज्यादा से ज्यादा वह ५० लोगों को देख सकता है
। अब २३ लाख डॉक्टर है और ५० का उसमें गुना कर दो तो बीमारों की संख्या, और
जिनका इलाज हो पा रहा है उनकी संख्या में ज़मीन-आसमान का अंतर है । फिर मैंने एक
दूसरा पत्र लिखा, मैंने स्वास्थ्य मंत्री को ये कहा की ये डॉक्टरों
की संख्या तो पर्याप्त नहीं है बीमारों का इलाज करने के लिए, क्या
सरकार की कोई ऐसी योजना है जो डॉक्टरों की संख्या बड़ाई जाए, तो
मंत्री के यहाँ से पत्र आ गया की भारत की सरकार और राज्य की सरकार ने अब तक जितने
डॉक्टरों बनाये है, इनको बनाने में करीब १० लाख करोड़ से ज्यादा का
खर्चा हो चूका है, अगर ये संख्या हम दुगुना करे तो २० लाख करोड़
रुपये हमें चाहिए । सरकार के पास इतना धन उपलब्ध नहीं है, इसलिए ये व्यवस्था
कैसे आगे बढ़ेगी मालूम नहीं । फिर मैंने भारत सरकार को याद दिलाया की, भारत
सरकार ने एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता किया हुआ है जिसमें कई देश शामिल है और वह समझौते का टाइटल है २०१४
तक सभी स्वस्थ । भारत में सन २०१४ तक सभी को स्वस्थ हो जाना है ये सरकार का समझौता
है तो २०१४ तक कैसे होने वाला है मुझे नहीं लगता की कोई होने की संभावना है और
सरकार स्वीकार करती है की जिस गति से सरकार काम कर रही है अगर सभी हिंदुस्तानियों
को स्वास्थ्य दिया जाए, चिकित्सा दी जाए तो कम से कम ३०० से ३५० साल
लगेंगे, ये केल्कुलेशन मैंने कैसे निकाला, हर साल जितने
डॉक्टर इस देश में पढ़कर निकल रहे है अलोपॅथी, होमियोपैथी और
आयुर्वेद के, और उसमें देश का जो ग्रोथ रेट है १० वह जोड़कर
हर साल उनकी संख्या बढ़ती जाये तो ३५० साल में सभी को चिकित्सा और स्वास्थ्य मिल
जायेगा । अब पता नहीं ३५० साल में कितने जीवित बचेंगे और कितने यहाँ से चले
जायेंगे । अब मेरी एक जो दुख की बात है मन की वह यह की ३५० साल में जनसंख्या अगर
जो बढ़ रही है अगर उसको जोड़ दिया इसमें तो किसी को स्वास्थ्य कभी भी उपलब्ध नहीं
हो सकेगा ।
जब ये जानकारी मुझे आई तो मैं बहुत परेशान हुआ
और मैंने सोचा की ये तो बड़ी गंभीर स्थिति है । फिलहाल कुछ वर्षों से मैं स्वामी रामदेव
जी के साथ जुड़ा हूँ, उनसे जब मैंने इन सब विषयों पर चर्चा की तो वह
भी कहते है की बात तो बहुत गंभीर है । सब को स्वास्थ्य मिलना, सरकार
के बूते का और सरकार के दम पर.. और चिकित्सा जो चल रही है इस देश में उसके दम पर
तो संभव नहीं है, कोई और रास्ता ढूंढ़ना पड़ेगा । अब दूसरा
रास्ता ढूंढने के लिए मैंने भारत देश के कई बड़े चिकित्सकों से बात करना शुरू किया
। ऐसे वैद्यों से बात करना शुरू किया जो आयुर्वेद के बड़े पंडित माने जाते है इस
देश में । विशेष रूप से एक वैद्य है हार्डिकर, पूना में रहते
है, और उनका भारत में बहुत बड़ा ऊँचा स्थान है । आजकल हिंदुस्तान के
आयुर्वेद चिकित्सा के जो विशेषज्ञ है, वह उसको आधुनिक चरक कहते है, इतनी
ऊंची स्थिति है उनकी, हार्डिकर जी की । उम्र उनकी लगभग ८५ वर्ष हो
चुकी है । मैंने हार्डिकर जी से कहा की भारत की, चिकित्सा की जो
स्थिति है वह यह है, सरकार कहती है, आप क्या मानते
है ? तो उन्होंने कहा की भारत में
किसी को भी सरकार के भरोसे
चिकित्सा कभी नहीं मिल सकती । अगर कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी चिकित्सा स्वयं
करे तभी रास्ता खुलेगा और कोई रास्ता नहीं ।
हार्डिकर जी ने एक दिन मुझे कहाँ की तुम जानते हो २०० साल पहले हिन्दुस्तान
में लोग बीमार नहीं थे इतने, तो मैंने कहाँ आप कैसे कहते हो ?
तो
उन्होंने कहा स्टॅटिस्टिकस देख लो, आंकड़े देख लो, तो २०० साल पहले
के भारत के लोगों के चिकित्सा और स्वास्थ्य के आंकड़े मैंने इकट्ठे किये, जो अंग्रेजो
की सरकार के द्वारा तैयार किये गए थे, क्योंकि उस समय भारत में अंग्रेजो की
सरकार चलती थी तो मुझे हैरानी हुई, की आज जितने बीमार है और उस समय जितने
बीमार थे, आज जितनी जनसंख्या है और २०० साल पहले जितनी जनसंख्या थी वह सब बातों
को ध्यान में रखते हुए मैं अगर आपको सरल भाषा मैं कहूं, की अगर आज १००
प्रतिशत लोग बीमार है तो २०० साल पहले मुश्किल से ८ या १० प्रतिशत लोग ही बीमार थे
।
अब वह ८ से १० प्रतिशत लोगों की चिकित्सा के
लिए अंग्रेजो ने अलोपॅथी व्यवस्था यहाँ शुरू की थी जो शायद पर्याप्त रही होगी,
क्योंकि
बीमारों की संख्या, हमारी कूल संख्या की ७० से ८० प्रतिशत हो गयी
है और ये चिकित्सा लगभग फेल हो गयी है । पिछले 600 वर्षों में
आजादी के बाद आप सब जानते है, सरकार भी मानती है इस बात को की,
जितना
विकास हुआ है अलोपॅथी चिकित्सा का, जितने डॉक्टर बड़े है, जितनी
दवाइयां बढ़ी है, जितने अस्पताल बड़े है, जितनी सुविधाएँ
बढ़ी है उतनी बीमारियाँ कई ज्यादा गुना से बढ़ गयी है । अब न अस्पताल पर्याप्त है
ना डॉक्टर पर्याप्त है । आप अकसर आए दिन अख़बारों में समाचार पढ़ते होंगे, टिव
पर देखते होंगे की लोगों को बिना चिकित्सा के मार जाना पड़ता है, बिना
दावा के मर जाना पड़ता है । अस्पताल के बाहर बेचारे पड़े रहते है, और
डॉक्टर कहते है की उनके ऊपर काम का इतना बोझ है की वह सभी मरीजों को देख नहीं सकते,
ये
दोनों तरफ की बातें समझने के बाद मुझे वैद्य हार्डिकर जी की बात समझ में आई । लोग
अपनी चिकित्सा स्वयं करे तो रास्ता निकलता है, सभी के स्वस्थ
होने का । तो मैंने एक बार हार्डिकर जी से पूछा की क्या ये संभव है की हर आदमी
अपनी चिकित्सा खुद कर ले, तो डॉक्टर की क्या जरूरत है ? तो
उन्होंने कहाँ की, डॉक्टर क्या करता है? आपसे कुछ बातें
पूछेगा, आप को भूख लगती है की नहीं ? आप को प्यास लगती है की नहीं, नींद
आती है की नहीं, खाना अच्छा लग रहा है की नहीं? वगैरह..
वगैरह.. और ये सब आप उसको बताएँगे । ये सब बताने के बाद वह आपको बताएगा की आपको
फलाना रोग हुआ है, या आपको ऐसी तकलीफ हुई है । मतलब क्या है?
डॉक्टर
ने जो बताया वह आपके कहने पर, वह कोई भगवान तो नहीं है जो आप कुछ भी
न कहो और बता दे की आपको ऐसा है । शायद २५०-३०० साल पहले रहे होंगे ऐसे कुछ
चिकित्सक, जो नाड़ी देखकर ही बात करते थे की, आपने दस दिन
पहले ये खाया । हार्डिकर जी ने मुझे बताया की ऐसे वैद्य रहे हे इस देश में,
जो
एक मिनट आपकी नाड़ी पकड़ लें, तो बता देंगे कल क्या खाया, दो
दिन पहले क्या खाया, चार दिन पहले क्या खाया, दस दिन पहले
क्या खाया; अब ऐसे लोगों की कमी बहुत है इस देश में,
संख्या
भी कम है । तो हार्डिकर जी ने कहाँ की आप जो बताते है, डॉक्टर उस पर
अपना तय करता है । लेकिन उसमें भी वह पक्का नहीं होता । अलोपॅथी चिकित्सा में तो
सिद्धांत ही है, ट्रायल एंड एरर । ट्रायल एंड एरर, माने
कोशिश करो और गलतियाँ करो । कोशिश करो और गलतियाँ करो, कोशिश करो और
गलतियाँ करो.. माने तो तीर चलाओ, लगे तो ठीक नहीं तो तुक्का । ये बात
हार्डिकर जी के मुँह से सुनी तो मुझे लगा की वह आयुर्वेद के चिकित्सक है इसलिए ऐसा
बोलते होंगे । फिर मैंने ये बात पक्की करने के लिए अलोपॅथी के कई बड़े डॉक्टरों से
बात की, दिल्ली में, मुंबई में । वह कहते है की, देखो बात तो सही है लेकिन हम इसे जाहिर में नहीं कह सकते; माने
आप जैसे लोगों के सामने नहीं कह सकते की, हम सब ट्रायल एंड एरर पर काम करते है
। हम सब तीर चलते है, लग
जाये तो ठीक नहीं तो तुक्का है, माने आपका जो इलाज किया जाता है वह एक
कुछ प्रयोग पर है पक्का कुछ भी नहीं है उसमें । काम कर गया तो ठीक है, नहीं
तो आप तो मर जायेंगे, डॉक्टर कहेगा, मैंने तो बहुत
कोशिश की, अब मैं क्या कर सकता हूँ ? और आप चुपचाप अपने मरीज की मृत शरीर
लेकर वहाँ से चले आएँगे । मैं आपको एक बहुत गंभीर बात कहना चाहता हूँ, हिंदुस्तान
के अलोपॅथी चिकित्सा के शीर्ष डॉक्टर जो इस देश मैं है उनकी एक संस्था हैं,
वह
संस्था की एक कॉन्फरेंस में मैं चला गया था गलती से । एक डॉक्टर मुझे मुझे पकड़ के
ले गया था, मेरा जाने का तो कोई अधिकार नहीं था लेकिन
डॉक्टर ले गया था । वह कहता था की तुम सुनना बस; बैठ के, हम
बात क्या करते हैं, कुछ बोलना नहीं, कुछ कहना नहीं,
प्रतिक्रिया
नहीं करना, बस सुनना । हम देखो क्या बातें करते हैं । तो
उस कांफ्रेंस में, मैं ३ दिन बैठा रहा दिल्ली में, जो
बातें होती है, वह आपको सुना दी जाएँ तो आप किसी भी अलोपॅथी
चिकित्सक के पास नहीं जायेंगे । वह बिलकुल इस तरह से बातें करते है, जैसे
कोई कसाई बकरे को काटने से पहले बात करता हैं । ऐसी स्थिति इस देश मैं आ गयीं है ।
फिर ३ दिन सुनने के बाद मैं परेशान हो गया, तो मैंने वह
डॉक्टर से कहाँ की मैं जाना चाहता हूँ, तो उसने कहाँ, अब तुम समझ गए
हम लोग क्या है । तो मैंने कहाँ की ये आपने मुझे समझाया कयु ? तो
उन्होंने कहाँ की तुम एक काम कर सकते हो, जो हम नहीं कर सकते की ये बात दूसरों
को समझा दो । ऐसी स्थिति हैं । उसमें जो सबसे गंभीर बात हुई थी, वह
मैं आपको एक वाक्य मैं कहना चाहता हूँ । वह यह कहते थे सभी डॉक्टर एक दूसरे से,
सहमत
होते हुए की २५० वर्षों में अलोपॅथी चिकित्सा ने एक ही काम किया है, दर्द
से लड़ने का.. बस! इसके आगे कुछ नहीं । २५०
वर्षों में अलोपॅथी चिकित्सा ने एक ही रिसर्च किया है, एक ही काम किया
है, एक ही शोध किया है वो दर्द से लड़ने का.. इसके आगे कुछ नहीं है । और
ये बात में बहुत घंटों-घंटों सोचता रहा तब जाकर मुझे प्रेरणा हुई की मुझे तो भारत
के लोगों को कुछ और बताने की जरूरत है । तब मैंने हार्डिकर जी को पूछा की, अब
मेरे समझ में आया आप बताइए क्या करना चाहिए ? तो उन्होंने कहा
देखो, आयुर्वेद एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है जिसमें महान-महान लोगों ने,
चरक
ऋषि, शुश्रूत ऋषि, बागभट ऋषि निघंटु ऋषि, पराशर
ऋषि, ये सब महान-महान लोगों ने एक बात कॉमन कही है और वो ये कही है की,
और
वो ये कही है, जो व्यक्ति मरीज होता है वो सबसे अच्छा डॉक्टर
हो सकता है । इसको आप गंभीरता से मनन करते रहिये । ये बात चरक ने भी कही है,
शुश्रूत
ने भी कही है, बागभट ने कही है, निघंटु ने कही
है, पराशर ने कही है । की जो रोगी होता है वो सबसे अच्छा डॉक्टर हो सकता
है क्योंकि उसको अपने दुख और तकलीफ का जितनी गहराई से महसूस हो सकता है वो किसी भी
डॉक्टर को नहीं होता । जो अपने दुख और तकलीफ को गहरे से महसूस कर सकता है वो
चिकित्सा भी कर सकता है बस उसको कुछ ज्ञान की जरूरत है और कुछ ज्ञान.. ज्यादा नहीं
थोड़ा सा ज्ञान अगर उसके जीवन में है तो वो कहते है वो हर तरह की बीमारी से लड़
सकता है और दूसरों की मदद कर सकता है । उनके इस वाक्य से मुझे बहुत प्रेरणा हुई की
जो रोगी है वो सबसे अच्छा चिकित्सक हो सकता है । और आयुर्वेद के जितने बड़े पंडित
है वो भी मानते है इस बात को । वो यह कहते है की आयुर्वेद का ८५ प्रतिशत हिस्सा,
ये
बात में आप सबको बहुत विनम्रतापूर्वक लेकिन बड़ी गंभीरता से कहता हूँ की इस बात को
आप कभी भूलिये मत । आपके जीवन के स्वास्थ्य और चिकित्सा का ८५ प्रतिशत हिस्सा इतना
सरल और आसन है की आप स्वयं कर सकते है; मात्र १५ प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसमें
आपको किसी विशेषज्ञ की जरूरत पड़ सकती है; मात्र १५ प्रतिशत । अगर पर्सन्टेज में
बात किया जाये तो आप जानते है ३३ प्रतिशत
पर आदमी पास हो जाता है और उसके ऊपर सेकण्ड डिविजन, थर्ड डिविजन
होती है और ६० पर तो फर्स्ट डिविजन होती है और ७५ पर तो डिस्टिंकशन आ जाती है ।
मैं ८५ परसेंट की बात कर रहा हूँ । ८५ प्रतिशत, पीच्यासी
प्रतिशत स्वास्थ्य और चिकित्सा का ऐसा हिस्सा है जो आपके जीवन में आप स्वयं कर
सकते है, बिना किसी
विशेषज्ञ की मदद से । बस १५ प्रतिशत हिस्सा ऐसा हे जिसमें आपको विशेषज्ञ की जरूरत
है । और आपको में एक आगे की बात कहता हूँ की ये जो क5 प्रतिशत हिस्सा
है आपके जिंदगी का जिसमें आपको विशेषज्ञ
की जरूरत पड़ती है; ये हिस्से मैं सबसे कम बीमारियाँ है ।
सबसे कम बीमारियाँ । माने जहाँ आपके जीवन मैं विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़े आपके जीवन
मैं, उन बिमारियों की संख्या सबसे कम है । और जहां आपको विशेषज्ञ की जरूरत
नहीं हैं आपके जीवन मैं, वो बीमारियाँ सबसे ज्यादा है । इसका
माने की हम ८५ प्रतिशत डॉक्टर तो हो ही सकते है; कन्कलूजन इस बात
का यह है । अब अगर आप ८५ प्रतिशत से और बेहतर डॉक्टर बनना चाहते है तो बागवत ऋषि
कहते है की शरीर को थोड़ा जान लीजिये बस ! और वो दूसरी महत्त्व की बात कहते है की
भोजन को पहचान लीजिये । शरीर को जान लीजिये; भोजन को पहचान
लीजिये तो वो कहते है की आप १०० ' डॉक्टर हो सकते है । शरीर को जान
लीजिये मतलब, थोड़ा फिजियोलॉजी, थोड़ा अॅनोटॉमी,
थोड़ा
शरीरविज्ञान आपको मालूम हो; और ये बहुत आसान है आजकल कोई मुश्किल
काम नहीं है । भारत सरकार ने विभिन्न तरह की छोटी-छोटी पुस्तकें छपा रखी है जो
बच्चों को पढ़ाई जाती हैं, हृष्टश्वक्रञ्ज के सिलेबस में तो अब ये
आ गया है, वो किताबें बाजार में उपलब्ध है आप खरीद लाइए और थोड़ा फिजियोलॉजी तो
समझ में आ ही जायेगा, थोडाबहुत अॅनोटॉमी तो समझ में आ जायेगा । शरीर
के क्या -क्या अंग है, अंगों के क्या-क्या उपांग है, ह्रदय
है तो कहाँ है, लिव्हर हैं तो कहाँ है, किडनी हैं तो
कहाँ है, लिव्हर का किडनी से क्या संबंध है; किडनी का ह्रदय
से क्या संबंध है, आपस के उनके इंटर-रिलेशनशिप है, अब
तो एक चार्ट आता है, कैलेंडर जैसा, मेरी आपको विनती
है की खरीद के टांग लीजिये घर मैं, आपको भी मदद करेगा और आपके बच्चों को
भी मदद करेगा । तो ये हिस्सा बहुत आसान हैं, मुश्किल नहीं
हैं । बस इसमें जो मुश्किल हिस्सा हैं वो यह की, शरीर के जो
अंगों के और उपांगों के जो नाम हैं वो जिस भाषा मैं दिए गए है वो आपको थोड़ा कम
समझती है, तो आप आयुर्वेद वाला लीजिये वो आपको आसानी से समझ में आएगा । उनके
आपस के संबंध वगैरह वगैरह । मैं इस विषय पर ज्यादा जाना नहीं चाहता क्योंकि ये
उपलब्ध है आपके सामने और इस पर ज्यादा बात करूं तो समय खर्च हो जायेगा । आप को
सिर्फ संकेत कर रहा हूँ की, आप चाहे तो आज या एक-दो दिन में कुछ
ऐसी पुस्तकें फिजियोलॉजी,अनोटॉमी की खरीद लें, नहीं
तो एक कैलेंडर चार्ट आता हैं, वो ले लें.. २-३ कलेंडर के चार्ट आते
हैं वो ले-लें, अभी सरकार ने एक बारह कलेंडर का चार्ट निकाला
हैं, बहुत ही सरल हैं, बहुत आसान हैं, उसको घर में
टांग कर पलटते रहिये, देखते रहिये, ज्यादा से
ज्यादा ८-१० दिन आप देखेंगे, आपको समझ में आ जायेगा लिव्हर क्या हैं,
ह्रदय
क्या हैं, किडनी क्या है, आपस में इनके फंकशन्स क्या हैं,
ये
बात बागभट जी कहते हैं की थोड़ा शरीर को जान लो और भोजन को पहचान लो । अब उसमें
आगे उन्होंने एक सूत्र लिखा हैं संस्कृत मैं की शरीर को जानना अगर है तो ठीक है,
इसको
जरा और समझिए । शरीर को जानना है तो ठीक हैं लेकिन भोजन को जानना सबसे जरूरी हैं ।
माने उनका कहना ये है की, शरीर को जान लें तो ठीक हैं लेकिन नहीं
जाने तो भी भोजन को तो पहचान लें । और बागभट जी ने पूरी विनम्रता से बड़ी गंभीरता
से एक बात लिखी हैं की जिसने भोजन को जान लिया उसको जिंदगी मैं कभी किसी चिकित्सक
की जरूरत तो नहीं पड़ेंगी । और भोजन को पहचान लिया मतलब रसोईघर को पहचान लिया सीधी
सी बात हैं । और बागभट जी कहते हैं की जीवन की सबसे बड़ी खोज अगर कोई हैं तो वो
रसोईघर हैं । और वो कहते हैं की सबसे बड़ा विज्ञान अगर कोई हैं तो ये रसोईघर का
विज्ञान है जिसे भोजन विज्ञान कहें या पाकशास्त्र कला कहें जो भी बात आप कहना
चाहें, और वो यह कहते हैं की इससे बड़ी खोज दुनिया मैं हुई नहीं और अगले
हजारों साल होगी नहीं । कितनी गहरी बात वो कहकर चले गए यहाँ से, वो
कहते हैं की पिछले हजारों सालों में हुई नहीं भोजन से ज्यादा रिसर्च और अगले
हजारों सालों में होगी नहीं । और में अपने अनुभव से या खुद आप अपने अनुभव से ये
बात कह सकते हैं की दुनिया मैं अगर भोजन पर सबसे ज्यादा रिसर्च अगर कहीं हुईं तो
वो भारत मैं हुईं और अगले हजारों सालों में होगी तो वो भारत में ही होगी । क्यों ?
दूसरे
देशों में भोजन ही नहीं हैं, रिसर्च क्या करेंगे? वो
भोजन कब को रिसर्च करे.. आप में से बहुत सारे लोग यूरोप, अमेरिका में गए
होंगे, आप देखिये भोजन क्या हैं उनके पास.. ले देंगे के एक पाँव की रोटी या
डबल रोटी, अब वो आलू से खा लो या प्याज से खा लो, प्याज से खा लो
या आलू से खा लो, उसको बीच में काट कर प्याज भर लो या फिर प्याज
बगल में रख कर खा लो, उसको पिझ्झा कह दो, बर्गर कह दो,
हॉट
डॉग कह दो, कोल्ड डॉग कह दो वो प्रिपरेशन तो एक ही हैं ना ?
और
वो प्रिपरेशन है मैदा का, मैदा को सड़ाकर बनाया हुआ इसके अलावा
उनके पास कुछ है नहीं जिसे फ़ूड स्टफ कहाँ जाये माने सॉलिड भोजन! मुख्य भोजन कहाँ
जाये वो उनके पास एक ही हैं पाँव रोटी, डबल रोटी; उसको वो मछली के
साथ भी खा सकते है, गाय के मांस से भी खा सकते हैं या बकरे के मांस
से भी खां सकते हैं या वगैरह..वगैरह कहीं से कुछ भीख में मिल गया, दाल,
चावल
वगैरह हो तो उसके साथ भी खा सकते हैं वो सब भीख में मिला हुआ हैं, उनके
यहाँ कुछ होता वोता नहीं । मैं आप को एक छोटी सी जानकारी देना चाहता हूँ की एक बार
मेरा एक विदेश से व्यक्ति से मेरा झगड़ा हो गया, एक जर्मनी का
व्यक्ति था उसके साथ मेरा झगडा हो गया, झगडा कुछ इस बात का था की जर्मनी महान
हैं की भारत महान हैं ? ये जर्मनी के लोगों को आप जानते हैं थोड़ा
शोविनेझम बहुत हैं, खराब शब्द हैं शोविनेझम लेकिन में यहाँ
इस्तेमाल कर रहा हूँ वो कहते हैं हम श्रेष्ठ हैं, दुनिया में हमसे
बड़ा कोई नहीं, हम सर्वश्रेष्ट हैं । हिटलर भी यही कहता था,
तो
उसकी महानता की हवा निकालने के लिए मैंने उसे सवाल कर लिए, तो वो परेशान हो
गयां लेकिन जर्मनी की असलियत सामने आ गयीं । मैंने पूछा की तुम्हारे देश में क्या
होता हैं ? गन्ना होता हैं गन्ना? शुगरकेन तो उसने
कहाँ नहीं होता । आम होता हैं आम? नहीं होता, केला होता हैं?
नहीं
होता, चीकू होता हैं? नहीं होता । संत्रा होता हैं? नहीं
होता । मोसंबी होती हैं? नहीं होती । जब बहुत परेशान हो गया तो
कहने लगा की देखिये मिस्टर राजीव दीक्षित कोई भी मीठी चीज मेरे देश में नहीं
होती.. अब बात आगे बढ़ी । कोई भी मीठी चीज मेरे देश में नहीं होती । एक वाक्य में
उसने खत्म कर दिया तो मैंने कहाँ अच्छा, मीठी चीज नहीं होती है तो कडवी चीज
पूँछते हैं, मेथी होती हैं मेथी? मेथी तो मीठी
नहीं हैं, मेथी होती हैं? उसने कहाँ नहीं होती.. पालक होता हैं?
नहीं
होता! चुकंदर होता हैं? नहीं होता! फिर थोड़ी देर में परेशान हो गया,
फिर
कहने लगा की हरे पत्तो की कोई चीज मेरे देश में नहीं होती? तो मैंने कहाँ
की होता क्या हैं? तो उसने कहाँ दो ही चीजे हैं, एक
आलूँ होता हैं और प्याज होती हैं । आलूँ को प्याज में मिलाकर खा लों या फिर प्याज
को आलूँ में मिलाकर खा लो और कुछ नहीं होता
। फिर मैंने उसको गिनाना शुरू कर दिया की देखो भारत में क्या क्या होता हैं,
मीठी
चिजोंमे क्या क्या होता है, खट्टी चिजोंमे क्या-क्या होता हैं,
तीखी
चिजोंमे क्या क्या होतां है, कसैली या कडवी चीजे क्या क्या हैं । ६
रस हैं ना, षडरस की बात कहीं जाती है, ६
वो रस मैने गिनाना शुरू किया तो उसने कहाँ
की यार इसमें तो एक एनसायकलोपेडीया लिख जायेगा तो मैंने कहाँ.. यस! भारत में
इतनाहीं होता हैं । और जब मैंने कहाँ की भारत के हर गाँव में होता है, तब
तो वो बहुत परेशान हो गया । मैंने कहाँ की ये हर गाँव में होता हैं, । ७
लाख ३२,००० गाँव हैं, हर गाँव में होता हैं माने किसी गाँव
के दुसरे पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, नमक को छोडक़र,
तब
उसने कहाँ सच में, इंडिया इज ग्रेट ! ये ग्रेटनेस है अपने देश में,
हमको
अगर ये समझ में आती हैं, तो बागभट जी की बातें हमें बहुत अच्छे
से समझ में आएगी । में बागभट जी के बारे में एक दो जानकारी और देकर विषय पर आना
चाहता हूँ ये भूमिका के रूप में कह रहाँ हँू । बागभट जी भारत के उन महान कृषीयों
मे गिने जाते हैं जिन्होंने चरक से भी ज्यादा काम किया । ये बात को बहुत ध्यान से
आप सुनियेगा लेकिन में बहुत विनम्रतापूर्वक कह रहाँ हूँ । अब तक आपने बार बार चरक
का नाम सुना हैं; 'चरक,चरक,चरकÓ।
बागभट जी चरक के शिष्य थे और चरक ने जितने साल काम किया, उससे डेढ़ गुना
काम बागभट जी का हैं । चरक जी के जाने के बाद चरक ने जो सूत्र लिखे है जो उनकी खोज
हैं, उनकी रिसर्च हैं, 'चरक संहिताÓ जो पूरा का पूरा
शास्त्र है उसके एक एक सूत्र को प्रमाणित करने का काम बागभट जी ने किया । प्रमाणित
करने का मतलब.. ऑबझरवेशन करना फिर जैसा रिजल्ट हैं वैसा ही प्राप्त करना । जैसे
चरक कृषी ने कहाँ ये खाने से ये होतां है, मान लो उन्होंने एक स्टेटमेंट कर दिया
की ये वास्तु खाने से ये होतां है, बागभट जी ने इन सुत्रोंको प्रमाणित
करने के लिए २५ साल लगा दियें, २० साल लगा दियें, ३०
साल लगा दियें और जब तक देख नहीं लिया तब तक उसको लोगों को कहने लायक नहीं माना ।
हमारे आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र के जो विशेषज्ञ हैं वो यह कहते हैं की चरक जो थे
महापंडित थे, बहुत उचे स्थान के व्यक्ति थे, लेकिन
बागभट जी थे वो साधारण आद्मियोंके चिकित्सक थे । इसका मतलब क्या हैं ? इसका
मतलब ये हैं की चरक जी ने जो बातें बहुत गहराई से और गूढ़ शबदोंमे कहीं है,
बागभट
जी ने उन्हें बहुत सरल करके साधारण लोगों को समझ में आये वैसा प्रस्तुतीकरण कर
दिया । बागभट जी की ये दो पुस्तकें, 'अष्टांग हृदयंÓ और 'अष्टांग
संग्रहमÓ पढ़ने के बाद मुझे ये लगा की मैंने चरक को पढ़ लियां, शुश्रूत
को पढ़ लिया, निघंटु को पढ़ लिया, सब को पढ़ लिया,
कयोंकि
उन्होंने सबका निचोड़ दाल दिया उसमें और वो यह कहते हैं की अब मैंने ये जो तैयार
कर दिया हैं, अष्टांग हृदयं और अष्टांग संग्रहम ये आम आदमी
के लिए हैं, वो चाहे तो इसका पालन करे और अपने जीवन में
मेरी तरह सुखी और निरोगी रहें, बागभट जी १३५ वर्ष तक जिन्दा रहें;
और
उनके शिष्य बताते हैं की उन्होंने इच्छा मृत्यु को धारण किया माने उनकी इच्छा हुई
थी की अब बहुत दिन तक जिन्दा रहने से कोई फायदा नहीं है तो मृत्यु को धारण किया ।
इतने पंडित आदमी, इतनी कमांड अपने शरीर पर, तो
वो यह कहते है तो शिष्य कह रहे थे की वो मृत्यू को जा रहे थे तो उनके शिष्य कह रहे
थे की परेशान हम हो जायेंगे आप चले जाएँगे तो उनका कहना था की, कोई
परेशानी नहीं है,ये शरीर छोड़ दूंगा, दूसरा धारण कर
लूँगा, जैसे तुम शर्ट बदलते हों में बदल लूँगा, लेकिन अब मुझे
जाना चाहिए इस शरीर का खिमा हो गया हैं । ऐसे व्यक्ति जिन्होंने मृत्यु को धारण
किया अपनी इच्छा से । उन्होंने जो कुछ अपने जीवन में किया हैं वो सिर्फ दो
पुस्तकों में सारा समायित हैं तीसरी कौनसी पुस्तक उन्होंने लिखी नहीं और वहीँ
दोनों पुस्तकों में कूल-मिलाकर ७००० सूत्र हैं । ७०००; २ पुस्तकों में
कुल-मिलाकर ७००० सूत्र हैं । सभी सूत्र संस्कृत में है ये तो आप जानते हैं कयोंकि
उस ज़माने में हिंदी थी नहीं, तमिल थी नहीं, तेलुगु थी नहीं,
ज्यादा
से ज्यादा संस्कृत ही थी या प्राकृत थी । तो संस्कृत में उन्होंने सब कुछ लिखकर
छोड़ दिया वही सूत्र में पिछले कहीं वर्षोंसे पढ़ता रहाँ, चार-पाँच वर्षों
से तो बहुत ज्यादा पढ़ रहाँ हूँ जब से
मुझे मन में ये बात आई तो बहुत ज्यादा पढ़ता आया । और हमारा जो अभियान है, जो
पुरे देश में हम चलाते हैं स्वदेशी के लियें, उससे ये बहु
गहराई से ये जुड़ा हैं । अब हमारे अभियान में अब तक हम ये बात करते थे ना की,
की
घर में ये पेप्सी, कोका कोला मत लाओ कयोंकि ये विदेशी पेय हैं ।
फिर में ये भी कहता था की ये पिनेलायक नहीं है, टॉयलेट कलीनर
हैं, बहुत साल पहले मैं कह गया था चेन्नई में, अब सरकार ने भी
मान लिया हैं की ये टॉयलेट कलीनर हैं, और वैज्ञानिकोने सिद्ध कर दिया हैं की
टॉयलेट कलीनर हैं । तो ये बातें हम स्वदेशी अभियान में जोडक़र चलते थे, जब
मुझे पता चला इसी अभियान का एक बड़ा हिस्सा हैं, पेप्सी, कोका-कोला
भारत से धन लूटकर अमेरिका ले जा रहें हैं, असी अॅलोपॅथी चिकित्सा की दवाइयाँ
बनाने वाली कंपनिया उससे भी ज्यादा लूट कर जा रहीं है । एक अमेरिकन कंपनी हैं उसका
नाम हैं प्रोकर एंड गै6बल । उनकी बैलेंस शीट मैंने देखि तो उनका
मुनाफे का प्रतिशत २०,००० हैं माने २०,००० पर्सेंट
प्रॉफिट कम रहें है वो, पेप्सी कोका कोला तो १,००० प्रतिशत पे
काम कर रहे हैं, प्रोकर एंड गै6बल २००० प्रतिशत
पे काम कर रही हैं । एक अमेरिकन कंपनी हैं एली-लिली उनका प्रॉफिट पर्सेंट ३५,०००
हैं । पैंतीस हजार प्रतिशत मुनाफा वो कम रहें है भारत में । तो ध्यान में आया की
विदेशी कंपनियाँ पेप्सी, कोका-कोला बेचकर जितना धन कमा रहीं है,
उससे
ज्यादा अॅलोपॅथी की दवाइयाँ बेच कर कम रहीं है, और उस धन को
कमाने में भारत के चिकित्सक थोड़ी मदद कर रहें है, कयोंकि वो उन्ही
दवाओं का प्रिस्क्रिप्शन लिख रहें है जो कंपनियां बेच रहीं है । मैंने बहुत सारे
चिकित्सकों से ये पूँछने का लगातार प्रयास किया है की, आप इसी कंपनी की
दवाएँ कयों लिखते हैं, मान लो एक चिकित्सक हैं, बहुत पैसे वाला
हैं, प्रोकर एंड गै6बल की ही दवाएँ लिखता हैं, ब6बई
में ये मैंने ज्यादा काम किया, और एक है वो एली-लिली की ही लिखता हैं,
एक
है संॅडोज की ही लिखता हैं, एक सिबग आय की ही लिखता है, तो
पता चला की उनका 'कमीशनÓ फिकस्ड हैं । ये खराब शबद बोलने के लिए
आप मुझे माफ़ करेंगे, डोकटरोंका कंपनीयोंसे कमीशन फिकस्ड हैं । माने
कमिशन जो कंपनी ज्यादा देगी, वो उसका प्रिस्क्रिप्शन लिखेंगे,
इसका
मतलब यह है की उनको आपकी चिकित्सा से कोई लेना देना नहीं है, उनको
अपने कमिशन की चिंता हैं । और वो कमिशन खाकर ऐसी
दवाएँ भी लिखेंगे आपको जो जरूरत नहीं है, गैरजरूरी हैं । अकसर आपने देखा हैं
एकसाथ कोई डॉकटरकोई प्रिस्क्रिप्शन है, १८-२०गोलियां है, ४
सुबह, ४ दुपहर, ४ शाम, ४ रात । गोलियां ऐसे खिलाते हैं जैसे
सबिजयां खाएँ हम । और वो तो कहते हैं की सबजी-वबिज खाओ ही मत, गोलियाँ
ही खाते रहो, हाँ । व्हिटेमिन 'बीÓ के
लिए भी गोली खा लो, व्हिटेमिन 'सीÓ के
लिए भी गोली खा लो, व्हिटेमिन 'एÓ के
लिए भी गोली खा लो, और गोली से भी ज्यादा इंजेकशन लगवा लो और अब
उन्होंने पता नहीं क्या-क्या सब बना दियां । माने प्रकृति जो हमें दे रहीं है उसके
चक्कर में ना फँसते हुए इन गोलियों के चक्कर में फँसो, ताकि कंपनी का
माल बीके, ताकि उनका भी कमिशन बढे, ये पुरे देश में चल रहा हैं कहीं
ज्यादा कहीं कम । में आपको विनम्रतापूर्वक ये कहने आया की जिस चिकित्सक को भगवान्
मान कर आप उसके पास जाते हैं, पैसे भी देते हैं, फीस
भी देते हैं लेकिन वो दवा आपको देता हैं कमिशन के आधार पर की ज्यादा कमिशन है तो
ये दवा लिख दो नहीं तो नहीं लिखनी । और भारत की सरकार बिलकुल ही फ़ैल हो चुकी हैं इस
कमीशनखोरी को रोखने में । और मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के पास कोई ऐसा कार्यक्रम
नहीं है और वो डाक्टरों की कमीशनखोरी को वो कंट्रोल करें । जो शपथ लेकर डॉक्टर
निकल रहे हैं, उसके ठीक उलटे काम वो अपने जीवन में कर रहे हैं
। एक शपथ उनको दिलाई जाती हैं, शपथ लेकर निकलते हैं; उसमें
बड़ी बड़ी बातें हैं लेकिन जीवन उसके ठीक उल्टा हैं । तो ये सब बातों को ध्यान में
रख कर मुझे लगा की, बागभट जी की बात जो वो कहते हैं पिच्यासी
प्रतिशत जीवन की जो चिकित्सा हैं; हर व्यक्ति स्वयं कर सकता हैं । १५
प्रतिशत के हिस्से में सिर्फ विशेषज्ञ की जरूरत हैं । तो मुझे लगा की जो पिच्यासी
प्रतिशत हैं वो तो जानो । वो जानने के लिए ५-६ साल काम किया मैंने उसमें से कुछ
सूत्र मैंने निकाले, बागभट जी के ७००० सूत्र हैं, सभी
सुत्रों पे बात करूँ तो कम से कम महिना, सवा महिना लगता हैं, वो
भी रोज ३घंटे बात करूँ तो । तो मैंने कहाँ और सोचा इतना समय किसी के पास भी नहीं
हैं और शायद मेरे पास भी नहीं हैं । तो इनमे से कुछ बहुत जरुरी सूत्र हैं वो
निकाले, तो भारत में मैंने जैसे हार्डिकर जी का नाम लिया उनकी मैंने मदद ली
थी, और हार्डिकर जी के बराबर के कई ऐसे वैद्य उनकी मैंने मदद ली । और
मैंने उनसे कहाँ की आप मुझे बातो ये सूत्र ये सूत्र, ये सूत्र.. बहुत
जरुरी हैं, बिना इसके आदमी का जीवन ही नहीं चलेगा । ये
मुझे बता दो, तो उन्होंने बताना शुरू कर दिया, तो
७००० से घटकर ३००० तक आए, तो ३००० से घटकर १००० पे आए, फिर
५०० पे आये, फिर ५०० से ५० पे आये, और उस ५० के बाद
भी उन्होंने कहाँ की अगर तुम ये ५० भी नहीं बता सकते हो तो ये १५ तो जरुर बता दो । तो मैं आपको ये कम
से कम ५० तो बताने ही वाला हूँ, कयोंकि अगले ५-६ दिन मेरे पास समय हैं
लेकिन उन ५० में जो १५ हैं, वो सबसे महत्वपूर्ण हैं, बागभट
जी खुद मानते हैं और उनके निचे के जितने भी विशेषज्ञ हुए हैं पिछले हजारो सालों मे
वो भी मानते हैं की ये सबसे महत्वपूर्ण सूत्र हैं । उसमें से पहला सूत्र में बात
शुरू करता हूँ । आपके पास अगर कागज-पेन हो तो जरुर निकल लीजिये, नोटबुक
है तो बहुत अच्छा होगा, डायरी है तो बहुत ही अच्छा होंगा कयोंकि पता
नहीं दुबारा कब कोन व्यक्ति आप से इस विषय पर बात करने आएगा । और अगर नहीं है
कागज-पेन, तो चिंता मत करिए मैंने कुछ वर्ष पहले काम करते करते ये सुत्रोंको
किताब में भी डाल दिया हैं, मैंने किताब लिख दी हैं, 'बागभट
संहिताÓ जो हैं, बागभट जी की अष्टांग हृदयं और अष्टांग संग्रहम
इनके सूत्रों को कलेकट करके, सिलेकट करके ३ भागों मे एक पुस्तक बनाई
हैं, पार्ट १, पार्ट २, पार्ट ३.
अष्टांग हृदयं भाग १, भाग २,भाग ३. मूल लेखक बागभट जी हैं, मैंने
सिर्फ सलेकशन किया, और सलेकशन के साथ आज के हिसाब से उसको, थोड़ा
विश्लेषित किया हैं । जैसे में एक उदहारण दूँ तो आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी ।
बागभट जी ने एक सूत्र लिखा अब में संस्कृत में बात नहीं करूँगा कयोंकि समय बढ़
जायेगा, एक सूत्र उन्होंने लिखा की, भोजन को बनाते समय, इसको
माताएँ, बहने बहुत ध्यान से सुने, पुरुष भी सुनें तो अच्छा हैं । भोजन को
बनाते समय, पवन का स्पर्श और सूर्य का प्रकाश अगर नहीं
मिला, किसको ? भोजन को, जिस भोजन को आप
बना रहें है, पका रहे हैं उसे पकाते समय पवन का स्पर्श और
सूर्य का प्रकाश नहीं मिलें तो वो भोजन कभी नहीं करना । कयों? तो
वो आगे लिखते हैं ये भोजन नहीं विष हैं और फिर आगे लिखते हैं की दुनिया में २ तरह
के विष हैं, एक ऐसे विष होते हैं जो तत्काल असर करते हैं और
एक ऐसे विष होते हैं, जो धीरे-धीरे असर करते हैं । तत्काल असर वाले
विष आप जानते हैं, जीभ पे एक ड्रॉप डालों और मर जाए । और
धीरे-धीरे असर करने वाले विष, माने २ साल में, ५ साल में,
१०
साल में, १५ साल में, २० साल में असर करेंगे और आपको मरने के
स्थिति में पहुँचा देंगे । तो सूत्र उनका इतना है की जिस भोजन को बनाते समय पवन का
स्पर्श और सूर्य का प्रकाश ना मिलें, वो भोजन को कदापि ना करें कयोंकि वो
विष हैं, अब ये सूत्र हैं, पहले संस्कृत है, मैंने
वो हटा दिया, संस्कृत में नहीं कहाँ, सीधे हिंदी में
कहाँ । अब ये हिंदी का विश्लेषण करें हम, कहना क्या चाहते हैं हम, और
आज के हिसाब से विश्लेषण करें, सन २००७ के हिसाब से विश्लेषण करे तो,
अब
तक मैंने जो बोला था वो बागभट जी का हिस्सा था, अब जो में बोलने
वालां हूँ वो मेरा हिस्सा हैं, बाग़वट जी कह रहें हैं की प्रेशर कुकर
का भोजन ना करें, कयोंकि प्रेशर कुकर एक ऐसी तकनीक हैं जिसमें
भोजन बनाते समय ना तो सूर्य का प्रकाश जा सकता हैं ना तो उसको पवन का स्पर्श उसको
मिलेगा । प्रेशर कुकर से वो जो भी हैं, हवा बाहर तो आ सकती हैं; बाहर
की हवा अन्दर जाने में कोई डिव्हाईस नहीं
है, कोई रास्ता नहीं हैं । सूर्य का प्रकाश उसमें अन्दर जाएँ ऐसी कोई
टेकनोलोजी डेव्हलप नहीं हुईं है। तो बागभट जी ने ३,५०० साल पहले कहाँ,
शायद
उनको अन्तर चेतनामें ये ज्ञान आया होंगा की कभी-ना कभी आदमी प्रेशर कुकर बनाहीं
लेगा । ये मैंने मजाक में कहाँ, लेकिन आज के हिसाब से आपको समझ में आये
इसलिए । तो वो यह कहते हैं की प्रेशर कुकर का भोजन ना करें, माने हमारे घर
में एक प्रेशर कुकर हैं, जिसपे बागभट जी का सिद्धांत लागू नहीं
होता माने सिद्धांत ऐसे लागू नहीं होता की हम उसका खाना खाएँ, ना खाएँ, वो विष हैं ।
फिर मैंने तो मैंने वैज्ञानिकों से बात की, की ये प्रेशर
कुकर का भोजन विष हैं ऐसा बागभट जी कहते हैं, आपका क्या कहना
हैं ? तो हमारे देश में ष्टष्ठक्रढ्ढ नाम की एक बड़ी लेबोरेटरी हैं,
सैंपल
ड्रग रिसर्च इंस्टीटूट । वहाँ के २ सायंटिस्टो ने कहाँ की यार ये काम तो हमने करके
देखा हैं बात सहीं है बागभट जी की । मैं कहताँ हूँ की ये टी.व्ही. पर बोलो,
तो
उन्होंने कहाँ की ये प्रेशर कुकर कंपनियाँ गर्दन काटके देगी हमारी, इसलिए
टी.व्ही. पर नहीं बोल सकते हम , तुम चाहों तो बोलो.. । मैंने कहाँ की
आपकी रिसर्च क्या हैं कहती हैं; वो यह कहते हैं की ये जो प्रेशर कुकर
हैं वो ज्यादा से ज्यादा या ९९ ' अॅलुमिनियम अॅलुमिनियम आप जानते हैं ।
और वो यह कहते हैं की भोजन बनाने का और रखने का सबसे खराब मेटल अगर कोई है तो
अॅलुमिनियम ही हैं । सबसे खराब मेटल खाना बनाने का, अॅलुमिनियम और
दोनों वैज्ञानिक कहते हैं, नाम नहीं लेना हमारा इसलिए में नहीं ले
रहाँ हूँ, वो कहते हैं हमारा १८ साल का
रिसर्च वो यह कहता हैं की अगर बार बार ईस अॅलुमिनियम के प्रेशर कुकर का खाना बार
बार आप खाते जाए तो गारंटी हैं की आपको डायबटिस तो हो ही जाएगा, अंथ्रयटिस
तो हो ही जायेगा ब्रोंकायटीस भी होने की पूरी संभावना है और सबसे ज्यादा टी.बी.
होने की संभावना है । मैं पूँछा, आपने अब तक कितनी बीमारियों को डिटेकट
कियाँ, तो उन्होंने कहाँ, अडतालीस बीमारियों को हम डिटेकट कर
चुके हैं जो प्रेशर कुकर के खाने से ही होती है । और ये दोनो रिसर्चर, सबसे
ज्यादा इन्होंने रिसर्च किया जेलों मे, जेल है ना हमारी, वहाँ
कैदियों को अॅल्युमिनिअम की बर्तनों में ही खाना मिलता है, आप जानते है ।
तो ये वैद्यानिक लखनौ के है, लखनौं की जेलों मे आसपास की जेलों मे
इन्होंने बहुत काम कियाँ । वो जेलों मे जाते है और जो कैदी अॅल्युमिनिअम के
बर्तनों मे खाना खाते है, उनके उपर उन्होंने बहुत काम कियाँ और
उन्होंने कहाँ सबका जीवन कम होता है और जीवन की शक्ती कम होती है, प्रतिकारक
शक्ती कम होती है । बाद मे मैने एक छोटासा काम इसमे अॅड कर दिया, वो
वैद्यानिकों से रिपोर्ट लेने के बाद मैने तय किया कि पता करो, ये
अॅल्युमिनिअम कब से आया; कयोंकि ये ज्यादा पुरानी चीज नहीं है ।
तो पता चला १००-१२५ साल पहले आया । १०० -१२५ साल पहले अंग्रेजों की सरकार थी ।
अंग्रेजों की सरकार की वैद्यानिकोंने अॅल्युमिनिअम को हिंदुस्थान मे इंट्रोड्यूस
कराया । और आपको सुनकर हैरानी होगी की, अंग्रेजों की सरकार का पहला नोटिफिकेशन
आया, अॅल्युमिनिअम के बर्तन बनाने का, वो जेल में
कैदियों के लिए ही आया । और उनका ये तय हो गया था कि जेल के कैदियों को
अल्युमिनीअम के बर्तन में ही भोजन दिया जाए कयोंकि, ये सब भारत के
क्रांतिकारी है और अंग्रेजों को इन्हे मारना है । उस जमाने मे आप जानते है,
भगतसिंग
हो या उदमसिंग, चंद्रशेखर हो या अश्पाक उल्ला, राजेंद्रनाथ
हो या ठाकूर रोशनसिंग, ये सब क्रांतिकारी थे अंग्रेजों के जमाने में,
इनको
जान-बूझकर अल्युमिनीअम के बर्तन में ही खाना देना है, ताकि ये जल्दी
मरें, या मरने के स्थिती मे आ जाए । तो समझ-बूझकर अंग्रेजों की सरकार ने
ल्युमिनीअम के बर्तन इस देश में इंट्रोड्यूस कर दिए । अब परिणाम क्या हुआ ?
अंग्रेज
तो चले गये, लेकिन जेलों मे आज भी ये नियम चल रहा है । और
अब मुश्किल ये हो गयी है की, अब वो जेलों से हमारे घर मे आ गया । और
हमारे घर से ज्यादा गरिबों के घर मे आ गया, ज्यादा गरीब
लोगों के भोजन तो सारे अल्युमिनीअम के बर्तनों में ही बन रहे है, और
बेचारे बिना जाने-बूझे ट्यूबरकयुलॉसिस और अस्थमा जैसी बिमारियों के शिकार हो रहे
है । तो बागभट जी का सूञ तो बहुत सरल है, सिंपल है की, जो भोजन को
बनाते समय सूर्य का प्रकाश या पवन का स्पर्श ना मिलें तो वो भोजन कभीं नहीं करना,
मैने
उदाहरण के लिए आपको समझा दिया की, प्रेशर कुकर का भोजन नहीं करना कयोंकि
वो जहर है । एक और चीज है अपने घर में रेफ्रिजरेटर ! रेफ्रिजरेटर भी एक ऐसी वस्तू
है, एक ऐसी डिव्हाईस है, एक ऐसी टेकनोलॉजी है जिसमें सूर्य का
प्रकाश नहीं जा सकता, पवन का स्पर्श भी नहीं हो सकता । और एक तीसरी
चीज हैं, अपने घर मैं, मेक्रोव्हेव ओव्हन । इसमें भी सूर्य का
प्रकाश नहीं जा सकता, पवन का स्पर्श नहीं हो सकता । मतलब सीधा सा ये
है की आधुनिक तकनिकी से बनी हुई चीजे जो हमारे घरों में आई है, पिछले
१००-१२५ वर्षों में, बागभट जी के अनुसार इनमें रखा हुआ, पकाया
हुआ भोजन विष हैं, वो न करें । नहीं तो क्या होगा ? आप
कहेंगे की हम तो करेंगे, हम तो छोड़ नहीं सकते प्रेशर कुकर को,
रेफ्रिजरेटर
को, हम तो छोड़ नहीं सकते मायक्रोव्हेव ओव्हन को, कयोंकि इसमें
भोजन बनाने से समय बचता हैं । मेरा बहुत सारी माताओसे और बहनोंसे तर्क हुआ है,
वो यह
कहते है कुकर में खाना बनाने से समय बचता हैं । तो मैंने उनसे पूंछता हूँ की ठीक
हैं, समय बचता हैं, तो बचे हुए समय का क्या करती हैं ?
तो
ज्यादातर माताओं, बहनों का उत्तार है, साँस भी कभी बहू
देखते हैं । इधर प्रेशर कुकर मैं खाना बनाके समय बचाओ और फिर हमने टी.व्ही. के
सामने वो समय इनवेस्ट कर दिया; तो नेट रिझल्ट क्या हैं ?.. तो
मैं उनको समझाता हूँ की आपने जो आधा- एक घंटा समय बचाया भोजन पकाने में, ये
आपका घंटो-घंटो अस्पताल मैं खराब कराएगा तब? दो घंटे रोज के
हिसाब से मान लो, बचा लिया और सालभर मैं आपने सांतसो-आँठसौं घंटे
बचा लिए, कल्पना करो । फिर एक दिन अस्पताल में भरती हो गए, और
दो-चार महीने वहाँ निकल गया तो, नेट रिझल्ट क्या? वहीँ
शून्य का श्यून्य । तो ये एक सूत्र हैं जिसपर में आपसे बात कर रहाँ हूँ की भोजन को
बनाते समय, पकाते समय, कोई ऐसी वस्तू
जहाँ सूर्य का प्रकाश ना जाता हों, पवन का स्पर्श ना होता हों तो वो ना
करे । अब इसमें विश्लेषण की जरूरत हैं । बागभट जी तो लिख के चले गए, अब
ये कयों ? का जवाब हमें ढूंढऩा हैं । और इसमें जरूरत हो तो आधुनिक विज्ञान की
जरूरत मदद भी लेनी हैं । मॉडर्न सायन्स ने कुछ लॉजिक डेव्हलप किये हैं, कुछ
ओबज़र्वेशन्स उन्होंने दिए है तो उनकी मदद से ये कयूँ ना करे ? क्या
कारण हैं? यहाँ से अब मैं बात शुरू करता हूँ । आधुनिक विज्ञान क्या कहता हैं,
प्रेशर
कुकर के बारे में? ये जाने.. प्रेशर कुकर एक ऐसी टेकनॉलॉजि है,
जो
खाना जल्दी पकाती हैं, ये सीधा सा मतलब । अब खाने को जल्दी पकाने के
लिए ये प्रेशर कुकर क्या करता हैं? जो भोजन आपने उसमें अन्दर रखा हैं,
पकने
के लिए उसपर अतिरिक दबाव डालता हैं, ये हैं प्रेशर । प्रेशर माने दबाव! तो
अतिरिक्त दबाव डालने की टेकनोलॉजि हैं ये प्रेशर कुकर । और ये अतिरिक्त दबाव कहाँ
से आता हैं? प्रेशर कुकर में आपने दाल डाली, ऊपर
से उसमें पानी डाला, थोड़ा हल्दी-मसाले डालकर बंद करके रख दिया । अब
उसमें वो सीटी लगा दी । वो सीटी लगा दी वो ही सबसे खतरनाक चीज हैं पुरे प्रेशर
कुकर में । सीटी ना लगाये तो आपका प्रेशर कुकर आपके लिए अच्छा हैं, सीटी
लगातेही क्या करता हैं; पानी गरम होगा आप जानते हैं, पानी
गरम करने से बाष्पीकरण शुरू होता है, व्हेपोरायझेशन होता है, तो
पानी की बाष्प, प्रेशर कुकर में चारो तरफ इक_ी
हुई, वो बाष्प जो हैं या, वो दबाव डालती है किसपर ? दालपर,
चावल
पर, सत्तजी पर । ये दबाव डाल के होता क्या है? डाल एक कल्पना
करिए, अरेहर की दाल । अरेहर की दाल के छोटे छोटे टुकड़े, एक
दाल को तोडक़र दो टुकड़े, जिसको द्विदल कहते हैं, जैन
समाज के लोग तुरंत समझ में आ जायेंगे ये द्विदल । चने की दाल, अरेहर
की दाल, द्विदल हैं, इसको तोडक़र आपने दाल बनाई है अब ये दाल
पानी में पड़ी हैं, नीचे से गरम और ऊपर से वाफ का दबाव, तो
ये दाल जो हैं ? ना, फट जाती हैं, फँटना समझते हैं?
वो
दरकना शुरू हो जाती है । उसके अंदर के जो मोल्येकुल है, दाल के अंदर जो
अणू हैं वो अणू, जो एक दुसरे को जकडक़र बैठे हुए है, ये
पानी का प्रेशर उन अणूओं को तोड़ता हैं । और दाल दरकना शुरू होती हैं । वो दाल दरक
जाती हैं और पानी इतना गरम हो जाता हैं, तो उबल जाती हैं, पकती
नहीं है; उबलती है । पकना और उबलने में अंतर हैं । तो उबल जाती है और दरक जाती
है । आप खोलते हैं, पाँच मिनट बाद, आपको लगता है
दाल पक गयी है । पक नहीं गयी है वो थोड़ी सॉफट हो गयी है, नरम हो गयी है
कयोंकि नीचे से गर्मी पड़ीं और उपरसे प्रेशर पड़ा बाष्प का । वो पकती नहीं है ।
उबल गयी है और उसका सॉफटनेस बढ़ गई है, तो आपने खाना खा लिया तो आपने कहाँ,
पकी
हुई दाल खा ली, माफ़ करिये ! दाल पकी हुई नहीं है । फिर आप
बोलेंगे की, पकी हुई दाल और इस दाल में क्या अंतर हैं?
पकी
हुई दाल का आयुर्वेद में वैसी सभी सिद्धांत है उसमें से आप से बता रहाँ हूँ ।
आयुर्वेद चिकित्सा ये कहती है की, जिस वस्तू को पकने को खेत में जितना
ज्यादा समय लगता हैं, भोजनरूप में पकने में भी उसे ज्यादा समय लगता
है । अब अरेहर के दाल की बात करे । आप में ये थोड़ा भी गाँव से जोड़ा हुआ कोई
व्यक्ति होगा तो आप जानते है, अरेहर की दाल को खेत में पकने में कम
से कम सात से आँठ महिना लगता है । कयूँ ? अरेहर की दाल में जो कुछ भी है जिसको
आप न्यूट्रीअन्ट्स के रूप में जानते है, मायक्रो न्यूट्रीअन्ट्स के रूप में
जानते है, सूक्ष्मपोषक तत्व के रूप में जानते है । वो मिट्टी से दाल में आने के
लिए सबसे ज्यादा समय लगता है । ये जो मिट्टी है ना खेत की, ये
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स का खजाना है । खेत की मिट्टी में कैल्शियम है, खेत
के मिट्टी में आयर्न हैं, खेत के मिट्टी में सिलिकोन है, कोबोल्ट
है, झिप्टन है, झोरोन है । ये सब
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स खेत के मिट्टी में है । ये पौधे की जड़ में आते हैं,
जड़
से तणे में आते हैं, तणे से फल में आते हैं, इस पूरी क्रिया
में बहुत समय लगता है, तो इसलिए दाल को पकने में समय लगता है । तो
आयुर्वेद यह कहता है की जिस दाल को खेत में पकने में ज्यादा समय लगा तो उसको घर
में पकने को भी ज्यादा समय लगना चाहिए । कयूँ ? ये जो
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स धीरे-धीरे दाल में अबझोर्ब हुए हैं दाल में, खींचकर
आये हैं दाल में, इनको डिझॉल्व्ह होने में भी धीरे धीरे ही समय
लगता है । आप दाल कयूँ खाना चाहते हैं? आप दाल खाना चाहते है प्रोटीन के लिए,
प्रोटीन
कहाँ से आएगा, ये जो मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स का कलेकशन दाल में
इक_ा हैं, इनके टूंट जाने पर, बिखर जाने पर ।
तो वो बिखरने में और टूटने में उसको देरी लगने वाली हैं कयोंकि आने में देरी लगीं
हैं । ये प्रकृति का सिद्धांत है, आयुर्वेद का नहीं कहना चाहिए, प्रकृति
का सिद्धांत है । बच्चे को पेट के अंदर गर्भाशय में विकसित होने में समय लगता है ।
दुनिया में हर चीज को विकसित होने में समय लगता हैं, जल्दी कुछ नहीं
होता इसलिए दाल भी जल्दी नहीं पकती, बच्चा भी जल्दी नहीं होता । सभी चिजों
मे ये है, प्रकृति का नियम हैं, और प्रकृति का ये दूसरा नियम है जिन
चीजों को पकने में, बड़ा होने में ज्यादा समय लगा हैं, उनको
डिझॉल्व्ह होने में भी ज्यादा समय लगेगा । और दाल जब डिझोल्व होगी तब आपको उसके
प्रोटीन मिलेंगे भोजन में, इसीलिए आप दाल खा रहें है ताकि आपको
प्रोटीन की कमी पूरी हों । कुछ व्हीटॅमीन्स आपको चाहिए, कुछ प्रोटीन्स
आपको चाहिए और दुसरे अंश आपको चाहिए तो आयुर्वेद का नियम बिलकुल सीधा है, दाल
ज्यादा देर में पकी हैं, तो घर में भी ज्यादा देर में पके । अब
मेरे समझ में आया की हमारे पुराने लोग जो थे,बुजुर्ग थे वो
कितने बड़े वैज्ञानिक थे । में एक बार जगन्नाथ पूरी गया था, आप भी गये होंगे,
तो
वहाँ भगवान् का प्रसाद बनाते हैं, तो प्रेशर कुकर में नहीं बनाते,
आप
जानते है । हालाखी, वो चाहे तो प्रेशर कुकर रख सकते हैं कयोंकि
जगन्नाथ पूरी के मंदिर के पास करोडो रुपयोंकी संपत्ति हैं । तो मैंने मंदिर के
महंत को पूँछा की ये भगवान का प्रसाद, माने वहाँ दाल-चावल मिलता हैं प्रसाद
के रूप में, वो मिट्टी के हांडी में कयूँ बनाते है ?
आप
में से जो भी जगन्नाथ पूरी गए हैं, आप जानते हैं की वो मिट्टी की हांडी
में दाल मिलती है और मिट्टी के हांडी में चावल मिलता है या खिचड़ी मिलती है । जो
भी मिलता है प्रसाद के रूप में । तो उसने एक ही वाकय कहाँ, मिट्टी पवित्र
होती है । तो ठीक है, पवित्र होती है ये हम सब जानते है, लेकिन
वो जो नहीं कह पाया महंत वो मैं आपको कहना चाहता हूँ, की मिट्टी ना
सिर्फ पवित्र होती हैं, बल्कि मिट्टी सबसे ज्यादा वैज्ञानिक होती हैं ।
कयोंकि हमारा शरीर मिट्टी से बना है, मिट्टी में जो कुछ हैं, वो
शरीर में है, और शरीर में जो है वह मिट्टी में है । हम जब
मरते हैं ना, और शरीर को जला देते हैं, तो
२० ग्राम मिट्टी में बदल जाता है पूरा शरीर, ७० किलो का शरीर,
८०
किलो का शरीर मात्र २० ग्राम मिट्टी में बदल जाता है जिसको राख कहते है । और इस
राख का मैंने विश्लेषण करवाया, एक लेबोरेटरी में , तो
उसमें केल्शियम निकलता है, फोस्फरस निकलता है, आयर्न
निकलता है, झिंक निकलता हैं, सल्फर निकलता
हैं, १८ मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स निकलते हैं, मरे हुए आदमी की
राख में । ये सब वहीँ मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स है जो मिट्टी में हैं । इन्ही १८
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स से मिट्टी बनी हैं । यही १८ मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स शरीर मैं
है, जो मिट्टी में बदल जाता है, तो महंत का कहना है की मिट्टी पवित्र
है वो, वैज्ञानिक स्टेटमेंट है, बस्स इतनाही है की वो उसे एकसप्लेन
नहीं कर सकता । एकसप्लेन कयूँ नहीं कर सकता ? आधुनिक विज्ञान
उसने नहीं पढ़ा या उसको मालुम नहीं है, लेकिन आधुनिक विज्ञान का रिझल्ट मालूम
है; पवित्रता! रिझल्ट उसे मालूम है विश्लेषण मालूम नहीं हैं । वो हमारे
जैसे मूर्खों को मालूम हैं, मैं आपने को उस महंत की तुलना से मुर्ख
मानता हूँ कयूँ ? कयोंकि मुझे विश्लेषण करने में ३ महीने लग गये,
वो
बात ३ मिनट में समझा दिया की मिट्टी पवित्र है । तो ये मिट्टी की जो पवित्रता है,
उसकी
जो मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स की कॅपॅसिटी या कॅपॅबिलिटी है, उसमें से आई है,
तो
मिट्टी में दाल आई है, दाल आपने पकाई है, तो वो महंत कहता
है की मिट्टी पवित्र है इसलिए हम मिट्टी के बर्तन में ही दाल पकाते है, भगवान्
को पवित्र चीज ही देते हैं । अपवित्र चीज भगवान को नहीं दे सकते । अच्छा, में
वो दाल ले आया, और भुवनेश्वर ले के गया, पूरी से
भुवनेश्वर । भुवनेश्वर में ष्टस्ढ्ढक्र का एक लेबोरटरी है । कौंसिल ऑफ़ सायन्स एंड
इंडस्ट्रियल रिसर्च का लेबोरेटरी है, जिसको रिजनल रिसर्च लेबोरटरी कहते है ।
तो वहाँ ले गया, तो कुछ
वैज्ञानिको से कहाँ की ये दाल है, तो उन्होंने कहाँ की हाँ-हाँ ये पूरी
की दाल है, मैंने कहाँ की इसका विश्लेषण करवाना है की दाल में क्या हैं ? तो उन्होंने
कहाँ की, यार ये मुश्किल काम है, ६-८ महीने लगेगा मैंने कहाँ ठीक है फिर
भी; तो उन्होंने कहाँ की हमारे पास पुरे इंस्ट्रूमेंट्स नहीं है, जो-जो
चाहिए वो नहीं है, आप दिल्ली ले जाए तो बेहतर है । तो मैंने कहाँ
दिल्ली ले ज्ञान तो खराब तो नहीं होंगी ? तो उन्होंने कहाँ की नहीं होंगी कयोंकि
ये मिट्टी में बनी है । तो पहली बार मुझे समझ में आया मिट्टी में बनी है तो खराब
नहीं होंगी । तो मैं ले गया दिल्ली तक, सच में ले गया । और भुवनेश्वर से
दिल्ली जाने को आप जानते है, करीब-करीब ३६ घंटे से ज्यादा लगता है ।
दिल्ली में दिया, कुछ वैग्यनिकोने उसपे काम किया, उनका
जो रिझल्ट है, जो रिसर्च है, जो रिपोर्ट है,
वो
यह है की इस दाल में एक भी मायक्रोन्यूट्रीअन्ट कम नहीं हुआ, पकाने
के बाद भी । इस दाल में एक भी
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट कम नहीं हुआ, पकाने के बाद भी, फिर
मैंने उन्ही वैज्ञानिकोंको कहाँ की भैया प्रेशर कुकर की दाल का भी जरा देख लो तो
उन्होंने कहाँ की ठीक है, वो भी देख लेते हैं । तो प्रेशर कुकर
की दाल को जब उन्होंने रिसर्च किया, तो उन्होंने कहाँ की, इसमें
मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स बहुत ही कम हैं, मैं पूँछा पर्सन्टेजवाइज बता दो,
तो
उन्होंने कहाँ की, अगर अरेहर की दाल को मिट्टी के हांड़ी में पकाओ
और १०० प्रतिशत मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स है, तो कुकर में पकाने में १३ प्रतिशत ही
बचते हैं, 8। प्रतिशत नष्ट हो गये । मैं पूँछा, कैसे
नष्ट हो गये, तो उन्होंने कहाँ की ये जो प्रेशर पड़ा है ऊपर
से, और इसने दाल को पकने नहीं दिया, तोड़ दिया,
मोलेकुलेस
टूट गए हैं, तो दाल तो बिखर गई है, पकी नहीं है,
बिखर
गयी है, सॉफट हो गयी है । तो खाने में हमको ऐसा लग रहाँ है की ये पका हुआ खा
रहें है, लेकिन वास्तव में वो नहीं है । और पके हुए से ये होता है की, मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स
आपको कच्चे रूप में शरीर को उपयोग नहीं आते, उनको आप उपयोगी
बना ले, इसको पका हुआ कहते है, आयुर्वेद में । जो सूक्ष्मपोषक तत्व
कच्ची अरेहर की दाल खाने पे शरीर को उपयोग में नहीं आएँगे, वो उपयोगी आने
लायक बनाये उसको पका हुआ कहाँ जाता है या कहेंगे । तो उन्होंने कहाँ की, ये
मिट्टी के हांडी वाली दाल क्वालिटी में बहुत-बहुत ऊँची हैं बशर्ते की आपके प्रेशर
कुकर के, और दूसरी बात तो आप सभी जानते है, मुझे सिर्फ
रिपीट करनी है, की मिट्टी के हांड़ी की बनाई हुई दाल को खा
लीजिये, तो वो जो उसका स्वाद है वो जिंदगीभर नहीं भूलेंगे आप । इसका मतलब क्या
है ? भारत में चिकित्सा का और शास्त्र पाककला का ऐसा विज्ञान विकसित हुआ
है, जहाँ क्वालिटी भी मेंटेन रहेगी और स्वाद भी मेंटेन रहेगा । तो मिट्टी
की हांड़ी में बनायीं हुई दाल को खाए तो स्वाद बहुत अच्छा है, और
शरीर की पोषकता उसकी इतनी जबरदस्त है, की दाल का सहीं खाने का मतलब उसमें हैं
। तो जब में गाँव-गाँव घूमता रहता हूँ तो पूँछना शुरू किया, तो लोग कहते है
की ज्यादा नहीं ३०0-४०0 साल पहले सब घर मे मिट्टी की हांडी की
ही दाल थी । मेरी दादी को पूछा तो मेरी दादी कहती है की, हमारी पूरी
जिंदगीभर मिट्टी के हांडी की दाल ही खाते रहें तब मेरे समझ में आया के मेरी दादी
को डाएबीटीस कयूँ नहीं हुआ, तब मुझे समझ में आया की उसको कभी घुटने
का दर्द कयूँ नहीं हुआ ?, तब मुझे समझ में आया के उसके ३२ दाँत
मरने के दिन तक सुरक्षित थे, कयोंकि हमने उसका अंतिम संस्कार किया,
अगले
दिन जब राख ही लेने गये तो सारे उसके दाँत ३२ के ३२ ही निकले । तब मेरे समझ में
आया की ९४ वे साल की उम्र तक मरते समय तक चश्मा कयूं नहीं लगन उसकी आंखों पर । और
जीवन के आखिरी दिन तक खुद आपने कपडे आपने हाथोंसे धोते हुए मरी । ये कारण है की,
शरीर
को आवश्यक मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स की पूर्ति अगर नियमित रूप से होती रहे तो आपका
शरीर ज्यादा दिन तक, बिना किसी के मदद लेते हुए, काम
करता रहता है । तो मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स का पूरा सप्लाय मिला दाल में, वो
खाई थी उसने मिट्टी की हांड़ी में पका पका के । और ना सिर्फ वो दाल पकाती थी
मिट्टी की हांड़ी में बल्कि वो दूध भी पकाती थी मिट्टी की हांड़ी में, घी
भी मिट्टी की हांड़ी से निकलती थी, दही का मठ्ठा भी मिट्टी के हांड़ी में
ही बनता था । अब मेरे समझ में आया की, १००० सालो से मिट्टी के ही बर्तन कयूँ
इस देश में आये ? हम भी अॅल्युमिनियम बना सकते थे, अब
ये बात में आपसे कहना चाहता हूँ की वो यह की हिंदुस्तान भी २००० साल पहले, ५०००
साल पहले, १०००० साल पहले अॅल्युमिनियम बना सकता था, अॅल्युमिनियम का
रॉ मटेरियल इस देश में भरपूर मात्रा में है । बोकसाईट, हिंदुस्तान में
बोकसाईट के खजाने भरे पड़े हैं । कर्नाटक बहुत बड़ा भंडार, तमिलनाडु,
आंध्रप्रदेश
बोकसाईट के बड़े भंडार है । हम भी बना सकते थे, अगर बोकसाईट है
तो अॅल्युमिनियम बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन हमने नहीं
बनाया कयोंकि उसकी जरूरत नहीं थी । हमको जरूरत थी मिट्टी के हंडे की इसलिए हमने
मिट्टी की हांड़ी बनाई और उसी पे सारे रिसर्च, एकसपेरिमेंट
किये । इसलिए कुम्भारों की पूरी की पूरी जमात इस देश में खड़ी की गई, तुमको
भैया मिट्टी के ही बर्तन बनाने है, जो तुमसे बड़ा वैज्ञानिक कौन.. । अब ये
कुम्भार जो इतने बड़े वैज्ञानिक है इस देश के जो मिट्टी के बर्तन बना के दे रहें
है हजारों सालो से दे रहे है, हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए,
हमने
उनको नीची जाती बना दिया । हम कैसे मुर्ख लोग । वो नीचे कहाँ है जरा बताइए,
अगर
प्रेशर कुकर की कंपनी जो बनाते है वो उचा आदमी है तो ये कुम्भार तो नीचा कैसे हो
गया । ऊँचा-नीचाँ दाल दिया हमने इस देश में, इसीने देश का
सत्यानाश कर दिया । ये ऊँचा-नीचाँ कुछ तो अंग्रेजोने डाला, कुछ अंग्रेजों
के पहले जो मुसलमान थे उन्होंने डाला, और कुछ अंग्रेजों और वो कुछ
अंग्रेजोंके और मुसलमानों के जाने के बाद हम काले इंग्रजोने उसे ऐसा पक्का बना
दिया की कुम्भार इस देश में बेकवर्ड कलास है । जो सबसे बड़ा वैज्ञानिक काम कर रहाँ
हैं, जो मिट्टी के बर्तन बना-बना कर आपके मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स को,
आपके
सूक्ष्मपोषक तत्वों को कम नहीं होने देने के लिए मिट्टी का सलेकशन करता है वो ।
आपको मालूम है, हर एक मिट्टी से बर्तन नहीं बनते, एक
ख़ास तरह की मिट्टी है, वही बर्तन बनाने में काम आती है और एक ख़ास तरह
की मिट्टी है, जो हांडी बनाती है । दुसरे खास तरह की मिट्टी
से कुल्हड़ बनता है, तीसरे खास तरह के मिट्टी से कुछ और बनता है ।
ये मिट्टी को पहचानना; इसमें केल्शियम ज्यादा, इसमें मग्नेशियम
ज्यादा इसलिए हांड़ी इससे बनाओ, और इसमें केल्शियम, मग्नेशियम
कम है इसलिए इसका कुल्हड़ बनाओ, ये तो बहुत बहुत बारीक़ और विज्ञान का
काम है; ये कुम्भार कर रहें हैं हजारों सालों से कर रहें है, बिना
किसी यूनिवर्सिटी में पढ़े हुए कर रहें है, तो हमें तो वंदन
करना चाहिए, उनके सामने नतमस्तक होना चाहिए, कितने
महान लोग हैं । दुर्भाग्य से सरकार की
कटागरी में वो बेकवार्ड कलास में आते है । तो ये जो मिट्टी के बर्तन की बात हुई,
वो
मिट्टी की बात इसलिए कयोंकि मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स का सब कुछ सामान रहता है ।
इसलिए हमारे यहाँ मॅल्युमिनियम के बर्तन
या दुसरे मेटल के बर्तन का चलन कम है, भगवान् के लिए तो बनाते नहीं, धातुओं
के बर्तन में खाना नहीं बनता । सभी मंदिरों में भोजन और प्रसाद ज्यादातर मिट्टी के,
तो
आप भी आर लीजिये ये काम । प्रेशर कुकर निकालिए, मिट्टी की हांडी
ले आइये । तो आप कहेंगे जी दाल देर में पकेगी, सिद्धांतही ही
वही हैं दाल का तो । देर में खेत में पकी है, वो देर में घर
में पकेगी । तो आप बोलेंगे की फिर टाइम मनैजमेंट कैसे होगा ? मई
आपको सरल बता देता हूँ की, दाल को हांड़ी में रखकर ये बाकी सब काम
करते रहिये । घंटे- डेढ़ घंटे में पक जाएगी । उतार लीजिये, फिर खा लीजिये ।
घंटे-डेढ़ घंटे में आपके झाड़ू,पोछा, दुसरे बर्तन
साफ़ करना, कपडे साफ़ करना, ये जो भी करना
है, पढना, लिखना, बच्चोंको पढऩा वो करते रहिये, दाल
पक जाएगी । ये है बागभट जी का सूत्र की, ऐसा भोजन नहीं करना जो बनाते समय,
पकाते
समय, सूर्य के प्रकाश से वंचित हो और पवन के स्पर्श से वंचित हो । ये तभी
संभव है, जब आप खुले बर्तन में खाना बनाए, पवन भी अंदर आये
और सूर्य का प्रकाश की किरने भी अंदर आये ।खुले बर्तन में; और वो खुला
बर्तन सबसे अच्छा मिट्टी का हांड़ी । आप कहेंगे जी मिट्टी के हांडी के बाद अगर कोई
चीज है तो ? तो हमारे यहाँ एक मेटल बनता है जिसको आप लोग
कहते है, अलॉय है, कांसा । कांसा आपने सुना है, शायद
देखा भी होगा किसी के घर में । तो दूसरा सबसे अच्छा माना जाता हैं कांसा । तीसरा
सबसे अच्छा माना जाता है, पीतल । अब ये कांसे और पीतल में भी
हमने काम कर लिया की, हरिहर के दाल को कांसे के बर्तन में पकाए तो
उसके सिर्फ ३ प्रतिशत मायक्रोन्यूट्रीअन्ट्स कम होते हैं, ९७ परसेंट
मेंटेन रहते हाँ । पीतल के भगोने में पकाए तो ७ प्रतिशत कम होता है, ९३
पर्सेंट बचते हैं, लेकिन प्रेशर कुकर में बनाये तो सिर्फ ।
प्रतिशत बचते हैं, बाकी ख़तम होते हैं । अब आप तय कर लीजिये,
आपको
लाइफ में क्वालिटी चाहिए तो आपको मिट्टी के हांडी की तरफ ही जाना पड़ेगा ।
क्वालिटी ऑफ़ लाइफ की अगर बात आप करेंगे, माने जो खा रहें हे वो पुरे शरीर में
पोषकता दे, ये क्वालिटी ऑफ़ लाइफ की अगर बात आप करे तो
मिट्टी के हांडी की तरफ ही जाना पड़ेगा, माने भारत की तरफ वापस लौटना पड़ेगा,
इंडिया
से । अभी हम है इंडिया में, जो बना दिया अंग्रेजोने, या
बना दिया अमरिकियोने; इस इंडिया से निकल के भारत की यात्रा करनी
पड़ेगी । और मैंने पिछले १-२ वर्षों मे ये बातें बहुत गावों में कहना शुरू किया है,
तो
इससे परिणाम पता है क्या ? की कुम्भारों की इज्जत बड़ी हैं गाँव
में । गाँववाले समझते हैं की ये तो कोई बड़ा काम कर रहें हे हमारे लिए, और
में मानता हूँ की मेरे व्याखयान की अगर कोई सार्थकता है तो वो यह की कुम्भारों की
इज्जत इतनी बढ़ जाये की वो पंडीतों के बराबर आ जाये कयोंकि वो किसीसे नीचे नहीं है,
कयोंकि
वो किसी से छोटे नहीं है । भले वो मिट्टी के बर्तन बना रहें है, बहुत
वैज्ञानिक काम वो कर रहें है । और मजे की बात है की वो हांडी आपको बना कर २०-२५
रुपयों मे ही दे रहे हैं; प्रेशर कुकर तो २५०-३०० रुपयों का है ।
और सबसे मजे की बात की ये हांडी जब ख़तम होगी, माने इसकी लाइफ
पूरी हो जाएगी तो ये हांडी फिर मिट्टी में मिल जाएगी और फिर वही मिट्टी से हांडी
बनाई जाएगी; दुनिया में ऐसी कोई वस्तू नहीं है, प्रेशर
कुकर के बारे में तो नहीं कह सकते । बायोडिग्रेडेबल है । तो आप कोशिश करे की अपने
घर में परिवर्तन करे । अब में आखिरी बात, आज की कह रहाँ हूँ वो यह की मैंने
पिछले ख वर्षों में; में होमियोपॅथी की भी चिकित्सा करता हूँ । तो
बहुत सारे मरिज मुझे फ़ोन करते हैं की राजीव भाई ये, ये । तो मैंने
कुछ मरिज को खांसकर कहाँ की देखो भैय्या, आपको में कोई दवा नहीं दूंगा तो कहने
लगे की बीमारी कैसे ठीक होगी ? तो मैंने कहाँ की मैं एक ही काम करो,
मिट्टी
की दाल खाना शुरू करो, मिट्टी की हांडी में पकाई हुई दाल खाना शुरू
करो; चावल खाना है तो मिट्टी के हांडी का । तो कहने लगे की राजीव भाई कौन
करेगा ये सब ? तो मैंने कहाँ की आप की बीवी करे या आप करो ।
अगर जिंदगी चाहिए तो झक मार के आप करो नहीं तो अमरीका जाए, कनाडा जाए,
जर्मनी
जाए; लाखों रुपये खर्च करो, फिर भी झक मार के वापस आ जाए, डॉक्टर
कहेगा इलाज नहीं । तो आप देख लो, तो जो गंभीर मरीज है, तो
आप जानते है कुछ भी करेंगे, जो आप कहेंगे ।तो मेरे पास डायबिटीस के
कुछ क्रोनिक मरिज है, बहुत क्रोनिक जिनका यूनिट; शुगर
यूनिट ४८० से ऊपर है, ऐसे १०० से ज्यादा मरीज है, कुछ
गुजरात में, कुछ राजस्थान में है और कुछ बम्बई में । मैंने उन
को कहाँ, ध्यान से मिट्टी का बर्तन ले आओ और शुरू करो । अब बर्तन लाने में
तकलीफ हुई, तो कुम्भार को ढूँढना पड़ा, लेकिन
मिल गया । वो ८ से ९ महीना हो गया, और उन्होंने नियमित रूप से मिट्टी की
दाल, मिट्टी का चावल, माने हांडी की दाल, हांडी
का चावल, हांडी की खिचड़ी नियमित रूप से खां रहें है और अब तो उन्होंने मिट्टी
का तवा भी ले आया अपने घर में, रोटी
बनाने के लिए, बाजरी की रोटी बहुत अच्छी बनती है इस तवे पे,
तो
रोटी भी उसी की खा रहें है । ८ महीना के बाद सबका शुगर टेस्ट करवाया है तो वो ४८०
यूनिट वाला अभी १८० यूनीट पे है । बिना किसी मेडिसिन के, बिना किसी
इंजेकशन के, बिना किसी टॉनिक के । और होमियोपॅथी की कोई दवा
नहीं दी मैंने उन को
। कुछ लोगों को, ज्यादा परेशान से थे, दवा भी दो दवा
भी दो, मैंने उन को
प्लॅसिबो दे दिया । प्लॅसिबो आप समझते है, खाली गोली, दवा नहीं डाली,
तो
मरिज को लगता है की में दवा खा रहाँ हूँ, दवा खा के अच्छा हो रहा हूँ, तो
मुझे मालुम है की वो कोई दवा नहीं है, वो प्लॅसिबो है । वो अच्छा हो रहा है,
उस
मिट्टी की दाल खा के, मिट्टी का चावल खा के, मिट्टी की
खिचड़ी खा के । रिझल्ट ये है, तब मैंने मान लिया की बागभट सच में
महान आदमी है । वो एक सूत्र लिख गए की आप ऐसा भोजन मत करो जिसमें सूर्य का प्रकाश
ना जाये और पवन का स्पर्श न हो, तो वो आपके लिए अमृत तत्ता्वा है,
भोजन
नहीं है वो अमृत जैसा है । एक एक सूत्र पूरा होता है, साडे आँठ का समय
हो गया है, आगे कल दूसरा, आगे तीसरा,
ऐसे-ऐसे
करते करते जो सबसे जरूरी १५ महत्वपूर्ण सूत्र है वो बताऊंगा, आभार
। धन्यवाद !
स्वदेशी द्वारा भारत को फिर से सोने की चिड़िया
बनाने के लिए और, भूक, गरीबी और बेरोजगारी को जड़ से ख़त्म
करने के लिए तथा, देश के ग्रामीण जनों को स्वावलंबी बनाने के लिए,
कृषि
अपनाने का संकल्प ले । महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, लोकमान्य
टिलक जैसे हज़ारों क्रांतिकारियों के सपनों का भारत बनाने वाले इस अभियान से जुड़े,
और
स्वदेशी अपनाये । स्वदेशी, याने भारत को सोने की चिडिय़ा बनाने का
दर्शन ! राजीव भाई के सपनों को पूरा करने के लिए, भारत को स्वदेशी
बनाने के लिए, स्वदेशी का विचार जन-जन तक पहुँचाने के लिए,
स्वदेशी
अपनाने और देश को खुशहाल बनाने के इस अभियान में शामिल हो, स्वदेशी सामानों
की सूचि जानने के लिए स्वदेशी सामानों के उपलब्धता के लिए और स्वदेशी चिकित्सा से
अपने शरीर को भिन्न दवा से स्वस्थ रखने के लिए, सेवाग्राम वर्धा
की कार्यालय में संपर्क करे । राजीव भाई के विचारों को गाँव-गाँव में पहुँचाने के
लिए, उनकी सी.डी. को निशुल्क वितरण करवाए । और स्वदेशी चिकित्सा के प लगा
कर, बिमारियों को बिना दवा के ठीक करे । देश का पैसा देश में रहे,
और
हमारा देश समृद्ध बने, स्वदेशी अपनाये । स्वदेशी सामानों की विस्तृत
जानकारी के लिए हमारे शोध केंद्र पर संपर्क करे ।
वन्दे मातरम
ReplyDeleteभाई राजीव दिक्सित का टेक्स्ट फॉर्मेट स्वस्थ्य चिकित्सा भाग 5 से भाग 8 आप कब तक पोस्ट करेगे किरपा कर के जल्दी से पोस्ट करे
आप जैसे महान देशभक्त को कोटि कोटि नमन जो आप ने भाई राजीव के कुछ लेक्चर टेक्स्ट फॉर्मेट के रूप में दिए
Kripya aap mujhe koi aisi jagaha bataye jahaan me स्वदेशी चिकित्सा (राजीव दीक्षित) भाग 1 se 4 kharid lu. . . .:)
ReplyDeletedhanyawaad. . . .:)
http://www.rajivdixitcd.blogspot.in/
DeleteThanks Rajiv bhai
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