Tuesday, August 27, 2013

स्वस्थ भारत शक्तिशाली भारत


भारत देश के आजादी के पहले संग्राम के   महान क्रन्तिकारी अमर शहीद तंत्यातोपे की  शहादत भूमि को मैं प्रणाम करता हूँ ।

 

आप सभी शिवपुरी नगर के सम्माननीय नागरिकों को , माताओं, बहिनों और  विद्यार्थियों को अभिवादन करता हूँ ।  मंच  पर वैठे मेरे सहयोगी  बहिन पुष्पांजलि जी ,  जो भारत स्वाभिमान के मध्य प्रदेश राज्य के प्रभारी है। मेरे एक दूसरे सहयोगी भाई श्री विवेक जी भी मध्य प्रदेश राज्य के  राज्य प्रभारी है . भाई दीपेन्द्र जी जो सह राज्य प्रभारी है मध्य प्रदेश के , भाई  तरुण जी जो मंडल प्रभारी है श्री वी के गुप्ता जी जो  भारत स्वभिमान राजगढ़ के सयोजक है, को मैं अभिवादन करता हूँ और सभी को धन्यवाद देता हूँ की इन के सहयोग से  इतनी सुन्दर व्यवस्था हुई है कि मैं आपके बीच मैं आसका; आप से संवाद कर सका । देश और समाज की कुछ गंभीर समस्याओं पर मैं आपसे बात करना चाहता हूँ और उसी के लिए आपके बीच मैं आया हूँ।  

 

भारत स्वभिमान नाम का अभियान  पूरे देश मैं 5 जनवरी 2009  से पूरे देश मैं शुरू  हुआ है ।परम पूज्यनीय स्वामी श्री रामदेव जी इसके अद्यक्ष  है । आचार्य श्री बाल कृष्णा जी इस अभियान के महामंत्री है। मुझे ।परम पूज्यनीय स्वामी जी ने इस अभियान का राष्ट्रीय  सचिव नियुक्त किया है । इस अभियान में संपूर्ण  भारत देश मैं लगभग 32 राज्य प्रभारी है, जिसमें से 2 आज यहाँ उपस्थित है । पूरे देश में कुछ मंडल प्रभारी है सरे  देश में  करीब  दो लाख 40 हजार योग शिक्षक है,  जो इस अभियान के साथ तन मन धन से लगे हुए है. जनवरी  2010 तक 11 लाख से अधिक योग शिक्षक इस अभियान से जुडेगे, नियमित रूप से प्रशिक्षण शिविर हरिद्वार मैं चल रहे है । अगर आप आस्था टीवी देखते  होंगे तो उन प्रशिक्षण शिविरों में कभी आँध्रप्रदेश का कभी छत्तीसगढ़ का कभी भारत देश के  उड़ीसा राज्य का, अलग अलग   राज्यों के  शिविर हो रहे हैं ।

 

 कुछ समय बाद परम पूज्यनीय स्वामी जी शिविरों को समाप्त करके भारत देश के एक- एक जिले के   प्रवास पर निकलने बाले है। हमारी ऐसी अपेक्षा है की स्वामी जी का प्रवास जब   एक एक राज्य में, एक-एक  जिले में  होगा, तो 2 करोड़ से लेकर 5 करोड तक लोग  इस अभियान के साथ सीधे जुड़ेंगे । और इस अभियान को हम वास्तव में एक राष्ट्रव्यापी  अभियान बना पाएंगे । आपके  मन में ये प्रश्न आयेगा, कि ये भारत स्वाभिमान अभियान है क्या? और इसको शुरू क्यों किया है? इसकी जरूरत क्या है?

 

हमारे देश में आजादी मिले हुए करीब 62 साल हो गये हैं ।  63 वाँ  साल होने को है , इसके बाद भी कई गंम्भीर प्रश्न ऐसे है जो हमें गुलामी की याद दिलाते हैं । सामान्य रूप से ऐसा होता है   दुनिया मैं , कि कोई भी अपने गुलामी के दिनों को याद नहीं करता  क्योंकि वो दिन अच्छे दिन नहीं माने जाते . कोई भी राष्ट्र अपने अछे दिनों को तो याद करता है लेकिन बुरे दिनों को भूल जाना चाहता है । जैसे परिवार मैं कभी दुर्घट्नाये हो जाती हैं तो उन दुर्घटनाओं को जली भूल जाना चाहते है, नहीं तो हमेशा हताशा में और निराशा में जीना  पड़ता है । परिवार मैं होने बाली वडी से बड़ी दुर्घटनाओं को जब हम भूल जाना चाहते हैं तो देश मैं भी होने वाली बड़ी से बड़ी दुर्घटनाओं को हमें भूल जाना चाहिए । लेकिन इस देश की आजादी कक 62 सालों  मैं भी ऐसा कुछ नहीं हो पाया की हम इन गुलामी के उन दिनों को भूल पाते और अच्छे  दिनों की तरफ आगे बढ़ पाते ।

 

 बहुत अफसोस औए दुःख से मुझे कहना पड़ता हैं कि इस देश की आजादी के लिए  जिन शहीदों ने संघर्ष किया, वलिदान दिया । जिनके जीवन का सब कुछ इस देश के लिए न्योछावर हो गया , उनके सपनों और आदर्शों  का भारत अगर बन जाता तो हमारे  जैसे लोगों को  भारत स्वाभिमान अभियान नहीं चलाना पड़ता, और इस तरह के काम में नहीं आना पड़ता । हुआ ये है की आजादी के 62 वर्षों के बाद भी अपने शहीदों के सपनों का भारत बन नहीं पाया । शहीदों ने जो सपना देखा था वैसा आदर्श इस देश में स्थापित नहीं हो पाया । अब शहीदों के सपनों का भारत स्थापित करना है और शहीदों के सपनों के आदर्शों को इस देश में  स्वतंत्रता रूप में, स्वराज्य रूप में उतारना हैं । उसी के लिए ये भारत स्वाभिमान का अभियान शुरू किया है। इस अभियान की मद्दद से हम ऐसा काम करना  चाहते है जो १५ अगस्त १ के बाद तुरंत होना चाहिए था लेकिन वो नहीं हो पाया ।   मुझे आप से एक बात कहनी है, कि अपनी आजादी बहुत कीमती है। अपनी आजादी का  मूल्य अगर आप समझना चाहें तो दो तीन बातें आपसे मैं कहना चाहता हूँ ।

 

 सबसे पहली बात कि दुनियां में 50 से ज्यादा देश, अलग अलग समय पर गुलाम हुए हैं; लेकिन किसी भी देश की आजादी में इतने लोग अपना सब कुछ न्योछाबर करके  शहीद नहीं हुए हैं। दुनियां में सबसे ज्यादा शहादत भारत की आजादी के के लिए हुई है । अमर शहीद तांत्या टोपे से अगर शुरुआत की जाये तो  वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना चित्तूर  चेन्नमा,वीरांगना झलकारी बाई,वीरांगना दुर्गावती , नाना साहब पेशवा ,सरदार भगत सिंह जैसे  शहीदों  को मिलाकर यदि  सूचि बनायीं जाये तो  "सात लाख  बत्तीस हज़ार सात  सौ अस्सी" नाम इसमें जुड़ जायेंगे।  आपको शायद इस बात का  अंदाजा है  कि  नहीं की इस देश की आजादी के लिए "सात लाख  बत्तीस हज़ार सात  सौ अस्सी"  शहीदों की कुर्बानी हुई है।

और ये "सात लाख  बत्तीस हज़ार सात  सौ अस्सी" वो शहीद है जिनको अंग्रेजों ने फांसी के फंदे  पर चढा दिया था; जैसे कि  अमर शहीद तंत्याटोपे जिनको की यंहा शिवपुरी में फांसी चढ़ाई गयी थी  । ऐसे ही अन्य शहीदों को भी फांसी पर चढ़ाया गया था । इसके आलावा अंग्रेजो की पुलिस के लाठियों के अत्याचार से,गोली बारी से, उनके खौफनाक तरीकों से  लोगों की जाने ली गयी। आपको शायद मालूम हो या नही की बहुत से लोगों को टॉप के मुहँ पर बाँध कर शरीर के चीथड़े करदिये जाते थे । तो जिन शहीदों को तोप के मुंह से बाँधा गया, अंग्रजो की लाठियों के अत्याचार ने मार डाला या दुसरे तरीकोंसे जिनकी जाने ली गयी उनकी संख्या साढ़े चार करोड़ है ।  दुनिया के  किसी देश की इतिहास में लोगो की इतनी बड़ी संख्या आजादी के लिए कुर्बान नहीं हुई ।  अंग्रेजों की नीतियों ने और अग्रेजों के अत्याचारों ने ऐसे कई बार मंजर उपस्थित किये थे । में आपको बंगाल के  कुछ  ऐसे उदाहरण देना चाहता हूँ ।

 

 1857 में जब आजादी की क्रांति हुई तब पहली बार  अंग्रेज  पराजित हुए और भारत के क्रांतिकारियों की जीत हुई    इसके बाद 1 नवम्बर  सन 1858  में अंग्रेजों ने दुबारा हमला किया  था और बंगाल के आसपास उन सब इलाको को अंग्रेजो ने सील कर दिया था, जहाँ से क्रांति कारियों के दल निकला करते थे । बंगाल के एक  महान क्रन्तिकारी थे  अरुविन्दो घोष, विपिन चन्द्र पाल।  ऐसे क्रांतिकारियों के दल बल जिन गाँव  शहरों  में रहा करते थे उन सभी जगहों को सील कर दिया गया था। ऐसे जगह पर खाने पिने की चीजों का मिलना बंद करा दिया था। भोजन समग्री जब महीनों महीनो तक उन जगहों पर नहीं पहुंची तो हजारों, लाखों लोगों ने भूख दे तड़प कर जान देदी । उनकी सख्या इस देश में साढ़े चार करोड़ के आसपास है। बहुत ही बड़ी क़ुरबानी हुई है । हम तो बड़ा अफ़सोस इस चीज का कर सकते है कि अगर हम क्रांतिकारियों की सूचि बनाने बैठे तो 10 -15 लोगों से ज्यादा के नाम याद नहीं आते हें। इस देश अच्छे खासे पढ़े लिखे और विद्वान लोगों के साथ में जब चर्चा करता हूँ और कहता हूँ कि चलो अपने इलाके के शहीदों की एक सूची बनाओ तो दो -चार से ज्यादा नाम ही याद नहीं आते। इतनो बड़ी विडम्मवना हैं, इतना अफ़सोस हैं की जिन लोगों ने हमे ये दिन दिखाया  हम उन्हें भूल चुके हैं। हमें न तो उनके नाम,कुल,गोत्र और नहीं गाँव ही हमें मालुम हैं। और शायद इसी अँधा धुंदी में हमें ऐसे भी मंजर देखने को मिलते हैं जो किसी और देश में संभव नहीं हैं।  इस देश के शीर्ष स्थानों पर ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने पल-पल इस इस देश के साथ गद्दारी की हैं, इसा देश के समाज से गद्दारी की हैं और  इस राष्ट्र की अस्मिता से गद्दारी की है। जिन लोगों ने अपना सब कुछ इस देश के किये कुरबान कर दिए उनके आज की पीढ़ी चाय बेच कर अपने परिवार का गुजर करते हैं।  ऐसे ही एक घटना में मैंने अपनी जिंदगी  एक सबसे खराब दिन देखा।

 

एक दिन में कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर उतरा क्यों की अक्सर में जाता रहता हूँ, लेकिन वो दिन में नहीं भूल पाया हूँ।   कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद अचानक मेरे  फ़ोन की घंटी बजी और में फ़ोन सुनने के लिए रुक गया । जहाँ में रुक था उसके सामने एक चाय की छोटी सी दूकान थी; जहाँ एक मा और बेटी ये चर्चा कर रहे थे कि हम गरीब क्यों हैं? कुछ लोग इस देश में बहुत अमीर क्यों है। तो माँ अपनी बेटी की समझाने की कोशिश कर रही थी। मेरे फ़ोन की वात पूरी होने पर मैं भी उनके पास चला गया। में ने जाने की कोशिश की आप जो चर्चा कर रहे वो तो इस देश के संसद को करनी चाहिए और अगर ये चर्चा करने मं सक्षम नहीं हैं तो इससे ज्यादा शरम की बात हमरे लिए क्या हो; सकती हैं। मेंने जिज्ञासावस उनका परिचय पूछ लिय तो मेरी आँख से आंसू निकल आये। दोनों ही अमर शहीद तांत्या टोपे के परिवार के लोग थे। उनको इस देश ने चाय बेचने के ककम पर लगा रखा है और जिन्होंने अंग्रेजों के साथ दोस्ती करके ,इस देश के साथ गद्दारी की थी ; उन्हें मुख्या मंत्री और प्रधान मंत्री के पदों पर बैठा रखा हैं।  आप जानते हैं?  कुछ परिवार ऐसे हैं जिन्हीने हर पल इस देश के क्रांतिकारियों के खिलाफ काम किया,देश की आजादी के खिलाफ  काम किया ऐसे परिवार देश् की शासन व्यवस्था में हो। और जिन्होंने अपना सब कुछ देश के लिए अर्पण करदिया हो उनके परिवार के लोग इस देश में चाय बेचें । क्या यही दिन देखने के लिए देश आजाद  हुआ हैं।  हमारे  देश में एक सिंधिया परिवार हैं जिन्हीने जिंदगी भर अंग्रेजों की मदद की और महारानी लक्ष्मीबाई को मरवाने मैं बहुत बड़ी भूमिका अदा की हैं।   जिन्होंने अंग्रजों को अपनी फौज देकर क्रांतिकारियों पर हमले करवाए थे।  उसी परवार के लोग आज इस देश में मुख्य मंत्री बने और अमर शहीद तंत्याटोपे के परिवार के लोग चाय बेचेंते फिरे; इस से बड़ा अपमान इस देश में कुछ नहीं हो सकता हैं।    

 

इस देश में एक और परिवार है , पटियाला राजघराना जिन्होने अँग्रेज़ों की सबसे ज़्यादा मदद की, जिन्होने पंजाब राज्य  को अँग्रेज़ों के हाथों लुटवाया  उसी राज घराने के केप्टन अमरिंदर सिंह  को पंजाब का मुख्यमंत्री वनाया  जाय और अमर शहीद तंत्याटोपे के परिवार के लोग चाय बेचेंते फिरे ऐसा हिन्दुस्तान तो हमने कभी सपने में नही सोचा था. कभी हमारी कल्पना नही थी की ऐसा देश बनेगा, शहीदों ने भी अगर ये सोचा होता की ऐसा  ही देश बनेगा तो शायद वो भी शहादत नही देते. उन्होने तो ये सोचकर अपना सब कुछ  कुर्बान कर दिया  की हम नही तो हमारी आने वाली पीडी इस देश में स्वतन्त्रता  का मंज़र देखेगी, शहीदों  के सपनों  और आदर्शों  का सम्मान होगा और उनके आदर्शों और सपनों  का भारत बनेगा, लेकिन  आज़ादी के 62 वर्षों के बाद भी ऐसा नही हो सका. जिस समाज मैं  गद्दारों  का सम्मान होने लगे, जिस संमाज में विश्वासघातियों को कुर्सियाँ मिलेने लगे, जिस  समाज में गद्दारों  और विश्वासघातियों  को सत्ता शिखर पर पहुँचाने  का काम होने लगे और शहीदों के परिवार को चाय बेचकर घर चलाना  पड़े. उस देश की  क्या दशा होगी, ये आप अपने दिमाग़ से सोचे और तय करें. मुझे तो बहुत खराब लगता हैं, बहुत क्रोध आता है इस देश की व्यवस्था पर. इतना महत्वपुराण इस देश की कुर्वानी  का ये आधार और दूसरा  आज़ादी मिलते ही इस देश के शहीदों को भूल जाना कैसे संभव हुआ.

 

में थोड़े दिन पहले पंजाब गया था,  पंजाब में अमृतसर गया , वहाँ  से  पाकिस्तान  सीमा पर गया. वहाँ एक छोटा  सा गाँव  है हुसैनीवाला , जहाँ में दर्शन करने गया था. वहाँ पर अमर शहीद भगत सिंह , अमर शाहिद राजगुरु और अमर शाहिद सुखदेव की समाधियाँ है  जैसे आपके शहर में  अमर शहीद तंत्याटोपे की समाधि है. मैं उस समाधि का दर्शन करने गया था उस मिट्टी को वंदन करने और माथे पर लगाने के लिए गया था. वहाँ जाने के बाद उन तीनो समाधियों की गंदी हालत देखकर मुझे इतना अफ़सोस हुआ. हमारे देश के करता धर्ता, जिनके उपर हम अपने खून पसीने के लाखों और करोड़ों रुपये खर्च करते हैं उनको इस वात की परवाह नही है की जहाँ तीन -तीन  महान  क्रांतिकारियों की शहादत हुई हो, उस जगह को कितनी पवित्रता से रखना चाहिए.  ऐसा देश भारत बना है , बहुत खराब है.  मुझे और भी एक बड़ा  अफ़सोस है की  जिन उद्देश्यों के लिए शहीदों ने शहदात दी उनमे से एक भी उद्देश्य पूरा होता दिखाई नही देता है.

 

एक पुरानी घटना शुरू करता हूँ मैं  अपने व्याख्यान के लिए.अमर शहीद भगत सिंह, अमर शाहिद चंद्रशेखर आज़ाद, अमर शहीद  मनमत नाथ गुप्त, अमर शहीद  सुचिन्द्रा नाथ लहिडी , अमर शहीद  राम प्रसाद विस्मिल जैसे लोगों ने मिलकर एक  संगठन वनाया  था, जिसका नाम था हिन्दुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसियेशन. ये संगठन वाराणसी में बना था सन 1924 में. इस संगठन की स्थापना के समय सारे क्रांतिकारियों   ने मिलकर एक घोषणा  पात्र जारी किया था, जैसे आज कल राजनैतिक पार्टियों के मैनेफेस्टॉस होते है. ये घोषणा पत्र सभी क्रांतिकारियों  के  हस्ताक्षर से जारी हुआ था. बहुत दिनो के बाद मेरे जैसे आदमी को ये घोषणा पत्र दिल्ली  के अभिलेखागार में ऐसी जगह से मिला,  जिसे बताया  नही जा सकता. ऐसी सभी सरकारी जगहों पर एक कूडाघर होता है,  ऐसे ही कचरा घर में मुझे भारत केक्रांतिकारियों    का घोषणा  पत्र पड़ा हुआ मिला. ये पत्र हाथ से लिखा  गया था, जिसमें  सभी क्रांतिकारियों के हस्ताक्षर थे और अमर शहीद भगत सिंह की लिखावट थी. मैं अपने जीवन में क्रांतिकारीओं के द्वारा लिखे हुए पत्र पढता रहा हूँ, इस लिए में भगत सिंह  की लिखावट को पहचानता  था. कचरे  के ढेर से मैने वो पत्र निकाल लिया, पलटने की कोशिश की तो बहुत पुराना होने की वजह से वह फॅट गया. मैने वो पत्र लेजाकर अभिलेखागार के डाइरेक्टर को दिखाया और पूछा कि  इतने महतव  की चीज़ कूड़े के ढेर में पड़ी हुई है? इसको तो वहूत सुरक्षित स्थान पर होना चाहिए था.  तो उस आदमी ने जबाब  दिया  की राजीव भाई  पूरा देश ही कूड़े के ढेर में पड़ा हुआ है, इसका क्या करें. उसके बाद उस पत्र अच्छे से निकाल  कर शीशे  पर रख कर सेलो टेप लगाकर और फटे हुए हिस्सों को जोड़कर  पढने  लायक बनाया. वो घोषणा पत्र आज भी दिल्ली में है, उस घोषणा पत्र मैं क्रांतिकारी क्या लिख रहें है.

 

अंग्रेज भारत को छोड़  कर जाए ये हमारे जीवन का पहला लक्ष्य है; लेकिन ये  आख़िरी नहीं है सिर्फ़ पहला है. जिसका अर्थ है की अँग्रेज़ों के जाने के साथ हमारी लड़ाई शुरू होती है ख़तम  नही. अंग्रेज भारत  से जाएँ ये पहला लक्ष्य है दूसरालक्ष्य क्या है? दूसरा लक्ष्य उससे भी बड़ा है  की अँग्रेजियत भारत को छोड़ कर जाय . अगर आप पूछेंगे अँग्रेजियत का मतलब तो इसका मतलब है अँग्रेज़ों की बनाई हुई व्यवस्था,क़ानून,नीतियाँ और तंत्र . इसको एक शब्द में अँग्रेजियत कहा जाता है. अंगरेज़ों की भाषा,भूषा,भेशज,पाठ्यक्रम, क़ानून  व्यवस्थाएँ, न्याय व्यवस्था ,प्रशशणिक व्यवस्था और कर व्यवस्था; ये सारा का सारा तंत्र  भारत से चला जाय ये क्रांतिकारियों का दूसा लक्ष्य था. फिर उसघोषणा पत्र में लिखा गया  कि  अँग्रेज़ों ने इस देश को लूट लूट कर  ग़रीब बना दिया है वरना ये देश कभी ग़रीब नही था. यह ग़रीबी इस देश से मिटे  और भारत फिर से एक संपत्तिवान देश वने . भारत के किसान और मजदूरों को इतना सम्मान मिले जितना पिछले  250 वर्षों मैं कभी नही मिला, और  जिसके वो हमेसा  हकदार थे. हर व्यक्ति मान और सम्मान के साथ जिए जैसे आजकल कोई करोड़ पति और अरब पति जीता  है. व्यक्ति का सम्मान हो, उस के कर्म और कर्तव्य का सम्मान हो पैसे का सम्मान न हो क्यों की पैसा का सम्मान किसी व्यवस्था को कायम करने वाला हो नही सकता. इसलिए हम कर्म को आधार  बनाकर हम सम्मान करें देश के साधारण नागरिकों का. फिर उस घोषणा  पत्र मै शहीदों की तरफ से लिखा गया है  कि  हमारे हाथ मैं  पाँच उंगलियाँ है, हर उंगली दूसरी उंगली के बराबर नही है  और दूसरी उंगली से  बहुत छोटी  या बहुत  बड़ी नही है इसलये हर अमीर और ग़रीब में उतना ही मामूली अंतर होना चाहिए जितना हाथ  की उंगलियों में है. ये हमारे उद्देश्यों मे शामिल है.  इस तरह से उस घोषणा  पत्र में 29 विंदु शहीदों ने लिखे  थे जो इतिहास है जिस पर इस देश की संसद और विधान सभाओं में वहस होनी चाहिए की हमारे शहीदों के सपने क्या थे; जिसके लिए वो अपने को इस देश के लिए कुर्बान कर गये. अंत  में उस घोषणा पत्र में लिखा है की देश के सारे नौज़बानों से ये अपील हैं " हम तो इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए जीते ज़ी  मर और खप जाएँगे लेकिन हमारी  आने वाली  पीढ़ी के  नौजवान इन्ही रास्तों पर आते रहें और देश के लिए अपने को खपाते रहें और न्योछावर  करते रहें".

 

 एक वाक़या शहीदे  आज़म भगत सिंह  ने लिखा अपने कलम से और वह लिखते हैं की भारत आज़ाद होगा; इसे दुनियाँ की कोई ताक़त रोक नहीं सकती. इसके आगे  वह लिखते हैं की भारत आज से लगभग 15 साल बाद आज़ाद होगा; लेकिन आज़ादी के बाद का भारत कैसा होगा इस को लेकर हमारे मन में बहुत आशंकाए और अविश्वाश   है.  आज़ादी के बाद देश यदि अपने रास्ते पर  चलेगा, स्वदेशी और स्वावलंबन के रास्ते पर चलेगा तो हमारी आत्मा को बहुत शुकून मिलेगा. लेकिन अगर आज़ादी के बाद यदि  ये देश फिर विदेशी और गुलामी के रास्ते पर चलपडा  तो हमारी शहादत बेकार जाएगी. इसलये भारत वसियों से हमें अपील करनी है की आज़ादी तो आ ही जाएगी, वो बड़ी वात नहीं है. लेकिन आज़ादी के बाद का भारत कैसा बनाया जाएगा वो महत्व की बात है. ऐसा  घोषणा पत्र  हमारे क्रांतिवीरों  अमर शहीद भगत सिंह , अमर शहीद चंद्र शेखर  आज़ाद, अमर शहीद  मनमत नाथ गुप्त, अमर शहीद  सुचिन्द्रा नाथ लहिडी , अमर शहीद  राम प्रसाद विस्मिल जैसे  और ठाकुर रोशन सिंह  ने लिखा था. ये वो क्रांतिकारी थे जो हिंसा के रास्ते पर चलकर भी देश को आज़ादी दिला ना चाहते थे. कुछ ऐसे भी लोग थे जो अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को आज़ादी दिलाना चाहते थे. उन मे एक महात्मा गाँधी  थे ; उनके साथ कम करने वाले  श्री  विनोबा भावे और पुरुषोत्तम दस टंडन  जैसे लोग थे. और जो अहिंसावादी  क्रांतिकारी थे उन्होने ने  भी अपना एक घोसना पात्रा बनाया था; और उनका घोषणा पात्रा 1946 में पूरे देश के सामने आया था.क्रांतिकारियों का घोषणा पात्र 1924 में आया  और उसके बाद 1946 में अहिंसावादियों का घोषणा पात्रा सामने आया. दोनों घोषणा पत्रों में बहुत सारी समानताएँ हैं. पहला विंदु उसमें भी यही है हमें संपूर्णा आज़ादी चाहिए, अंग्रेज चाहें तो इस देश में मेहमान बनकर रहें लेकिन अँग्रेजियत को इस देश से हमें विदा करना है. तीसरा विंदु था की अँग्रेज़ों की बनाई हुई व्यवस्था , क़ानून सभी हमें  बदलने  हैं; हमें इन की ज़रूरत नही है. चौथा विंदु है ग़रीबी, भुकमरी, बेकारी इस देश से दूर होनी चाहिए. इस तरह से एक लंबा घोषणा पात्रा अहिंसावादियों की तरफ से आया. ये जो अहिंसावादी  और हिंसावादी  क्रांतिकारी थे इन्हें मैं  कैंची की तरह मानता हूँ. आपको मालूम है कैंची के दो हिस्से होते हैं और दोनों ही काटने का काम करते हैं,इसी तरह हिंसावादी और अहिंसवादी अँग्रेज़ों की गुलामी को काटने का काम कर रहे  थे. उद्देश्य में कही कोई मतभेद नही था सपने दोनों के एक ही थे केवल रास्ते और तरीके अलग अलग थे. कुछ  क्रांतिकारियों  ने अँग्रेज़ों से लड़-भिड  कर, मरने और ख़तम करके आज़ादी पाने का रास्ता चुना. कुछ का रास्ता था की अँग्रेज़ों को भारत  छोड़  ने के लिए मजबूर करो, विपरीत परस्थितियाँ निर्माण  करके; अँग्रेज़ों को हटाना है स्वतंत्रता  को लाना है. उद्देश्य और आदर्शों में कोई मतभेद नही है

 

ये हमारे समझने की बात है. अगर दोनों ही तरह के क्रांतिकारीयो  के उद्देश्य और आदर्श एक थे, तो आज़ादी मिलते ही इस 15 अगस्त 1947 के तुरंत बाद इस  देश की संसद और विधान सभाओं को इस काम  लिए लग जाना चाहिए था  की शहीदों के जो सपने और आदर्श थे उन्हे कैसे पूरा करें.  इस बात पर चर्चा होनी चाहिए  थी की हम ऐसा क्या  करें जिससे ये उद्देश्य जल्दी से जल्दी पूरा हो. लेकिंन  आज़ादी के 62 साल के बाद भी संसद और विधान सभाओं ने ऐसा कुछ  नही किया जिससे शहीदों के एक सपने को भी पूरा किया जया सके. ये बात मैं आपको कुच्छ उदाहरण देकर समझना चाहता हूँ.

 

हमारे अमर शहीद भगत सिंह   ने फाँसी की सज़ा पाई थी , जिसके बजाह था सान्डर्स नाम का अंग्रेज . सान्डर्स ने; भारत से अँग्रेज़ों को जाने के लिए मजबूर  करने के काम लगे एक अहिंसावादी क्रांतिकारी लाला लाजपतराय पर विना किसी वाजिब बजाह के  लाठियाँ वरसाईं थीं . लालालाजपात  राय ने अँग्रेज़ों के एक क़ानून का विरोध करने के लिए लाहौर में  एक जुलूस निकाला था.  अग्रेज़ों की सरकार ने एक क़ानून बनाया था जिसका नाम था रौलट एक्ट . उस रौलट एक्ट  में की गयी व्यवस्था के अनुसार अँग्रेज़ों की पुलिस किसी भी व्यक्ति को किसी भी समय पकड़ के कर ले जा सकती थी, और विन  मुक़दमा चलाए उसे सालों जेल में रख सकती थी. इस क़ानून  के अनुसार पकड़े हुए व्यक्ति को किसी अदालत में  अपील करने का अधिकार भी नही दिया गया था. पुलिस के द्वारा की जाने वाले वेवजह  अत्याचारों के बाब्जूद वह कहीं भी शिकायत दर्ज नही करा सकता था. इस तरह का जो बर्बरता पूर्ण  क़ानून अँग्रेज़ों की सरकार ने बनाकर,  रौलट एक्ट  का नाम दिया था. इस क़ानून का   विरोध करने के लिए लाहौर में  लाला लाजपत राय ने एक बहुत बड़ा जुलूस निकाला था. इस शांति पूरण प्रदर्शन पर सांडर्स  ने अन्य अंग्रेज अधिकारियों के साथ मिलकर लाला लाजपत राय के सर में इतनी लाठियाँ बरसाई जिससे उन्हे ब्रेन  हेमरेज  हो गया  और उनकी मृत्यु हो गयी. हमारे देश के भगत सिंह  जैसी सोच वाले क्रांति कारियों को ये वर्दाश्त नही हुआ.भगत सिंह  भी लाहौर में ही रहा करते थे; उन्होने पुलिस अधिकारी सांडर्स  के खिलाफ पुलिस में एक शिकायत दर्ज कराई. पुलिस शिकायत के आधार पर जांच  हुई और उमें ये पाया गया की लाला जी के उपर विना किसी  कारण के लाठियाँ बरसाई गयी  थी. ना तो उन्होने किसी को भड़काया तथा  ना पुलिस से कुछ  कहा, नही किसी तरह की बात हुई. इस पर शहीदे आज़म भगत सिंह  का ये कहना था की  सांडर्स ने ये सब बिना वजह किया है और उसे दंड मिलना चाहिए. ये बात जबसांडर्स के सामने पहुँची तो उसने कहा मैंने  जिस क़ानून के आधार पर  ये काम किया है वो क़ानून मेरे पक्ष में, हैं पिटने वाले के पक्ष में नही. ये कौनसा क़ानून था? इस क़ानून का नाम हैं "इंडियन पुलिस एक्ट " .ये क़ानून सन 1860 में बना था , और ये घटना सन  1927 में हुई थी. अंग्रेज़ो ने जो क़ानून बनाया था उसमें हर अंग्रेज पुलिस अधिकारी को ये अधिकार दिया गया था ;जिसे अँग्रेज़ी में "राइट तो औफेंस" कहते है. जिस का मतलब है पीटने का अधिकार, मारने का अधिकार, हमला करने का अधिकार.  ये सारे अधिकार अंग्रेज अधिकर्यों को दिए गये लेकिन जिसको पीटा जराहा है उसे  बचाव का  कोई अधिकार नही दिया गया था. इस 1860 के इंडियन पुलिस एक्ट के काफ़ी अध्ययन करने के बाद दो ही बात मेरे सामने आई. पुलिस को "राइट तो ओफ़ेंस" है पिटने वाले को "राइट तो डिफेंस" नही है. पुलिस अधिकारी अगर आपके उपर लाठी बरसाता हैं तो आप पिट  लीजेए ; लाठी पकड़ने की कोशिश मत कीजेए नहीं तो मुक़दमा आपके खिलाफ बनेगा कि  आपने पुलिस अधिकारी को ड्यूटी करने से रोका. मतलब बिल्कुल सॉफ है क़ानून अंग्रेज पुलिस अधिकर्यों के समर्थन मैं था और क्रांतिकारियों के विरोध में था. सांडर्स  ने  जब अदालत में ये बात उठाई की मैने इस क़ानून के आधार पर काम किया है और इसमें लाला जी का सिर फॅट गया तो में क्या करूँ. मैने तो अपनी ड्यूटी निबाही  थी ,ये मेरा अधिकार है कि  मैं उनके सिर पर लाठी बरसाऊं. लाला जी मर गये तो मैं क्या करूँ. जब इस तरह की बहस हुई तो भगत सिंह  को बहुत क्रोध आया.  और इस बहस का अंतिम परिणाम ये निकला की सांडर्स  को कोई सज़ा नही हुई और उसको बाइज्जत  बरी किया गया. तो भगत सिंह  ने कसम खाई की न्याय मुझे अपने हाथों से करना पड़ेगा; अँग्रेज़ी व्यवस्था से हम न्याय की उम्मीद नही कर सकते. अपने हाथों से न्याय करने के लिए ही भगत सिंह  ने एक टोली बनाई जिस में चंद्र शेखर आज़ाद,सुखदेव और राजगुरु उनके सहयोगी बने. इस टोली ने कसम खाई की एक दिन हम सांडर्स  को मार डालेंगे. क्योंकि सांडर्स  का जिंदा रहना बहुत ख़तरनाक होगा  सभी क्रांतिकारियों  के जीवन के  लिए।  इसलिए  एक दिन भगत सिंह ने सांडर्स को गोली मार दी.  भगत सिंह  ने खुद गोली चलाई. प्रत्यक्ष दर्शियों का ये कहना था की एक ही गोली में सांडर्स की मौत हो गयी  थी, फिर भी अपने मन के क्रोध को शांत  करने के लिए भगत सिंह  ने दो और गोलियाँ    उसकी छाती  में मारीं . सरदार भगत सिंह  ने कहा  जो न्याय हमें अँग्रेज़ी व्यवस्था से नही मिला उस न्याय को लेने के लिए हमें हाथ में रिवाल्वर उठानी पड़ी. ये कहानी है; इस का मूल है की एक क़ानून बनाया अँग्रेज़ी सरकार ने और जिसके आधार पर पुलिस को सारे अधिकार दे दिए. भारत वासियों के सारे अधिकार छीन लिए  गये. लालालाजपत  राय की मौत का बदला लेने के लिए और क़ानून का विरोध करने के लिए भगत सिंह  ने सांडर्स को गोली से मारा. बदले में भगत सिंह  को फाँसी हो गयी लेकिन भगत सिंह  को अपनी फाँसी का कोई अफ़सोस नही था. उनका यही कहना था की अगर तुम्हे अंग्रेज़ो से न्याय ना मिले तो अपने हाथ में रिवाल्वर उठाओ और एक एक अँग्रेज़ी अधिकारी को ख़तम करते जाओ. ये संदेश उन्होने पूर देश को दे दिया. ये कहानी 23 मार्च 1931 को समाप्त हो गयी. उसमें भी अंग्रेज सरकर की कायरता और निकम्मापन  सामने  आया. सरदार भगत सिंह  को 6 बजे सुबह 24 मार्च 1931 को फाँसी होनी थी लेकिंन  अँग्रेज़ी सरकार ने डरकर उन्हें एक दिन पहले ही फाँसी देदी  थी और उनके शरीर की  अंतिम संस्कार के लिए भी  कोशिश की. जिस का पता जब उनके सहयोगियों को लगा तब उन तीन  शहीदों के मृत शरीरों को हुसेनी बाला में लाकर सम्मान पूर्वक अंतिम संस्कार किया गया.

 

अब में मूल प्रश्न पर आता हूँ  की जिस अँग्रेज़ी  पुलिस क़ानून के तहत इतनी सारी घटना घटी; लाला लाजपत राय की हत्या हुई. सरदार भगत सिंह , राज गुरु और सुखदेव जैसे तीन क्रांतिकारियों को फाँसी चढ़ना पड़ा; उस मूल क़ानून को आज़ादी मिलते ही जला देना चाहिए था, पूरी तरह से ख़तम होजना चाहिए था. लेकिन आज़ादी  के 62 साल के बाद भी ये क़ानून चल रहा है और  इस क़ानून में कोई बदलाव नही हुआ है. आज भी  पुलिस उसी तरह से व्यवहार करती है, पहले अंग्रेज क्रांतिकारियों पर लाठी चलते थे आज  हमारी  पुलिस साधारण लोगों पर लाठी चलती है. आज भी पुलिस की लाठियों से लोगों के सर फटते हैं;लोगों के  पैर टूटते है. आज भी पुलिस की  गोलियों से लोगों की जाने जाती है . और इस देश के लोग विना किसी वजह के अपनी शहादत देते है. तब मैं अपने आप से पूछता हूँ की क्या आज़ादी आगायी  है? क्या स्वराज की स्थापना होगई  है? अगर अँग्रेज़ी क़ानून 1927 में चलता था 1860 में चलता था और 1947 तक चलता रहा है।   अब वह 2009 में भी चल रहा है तो कैसे कहें की आज़ादी आई है ? कैसे कहें  की स्वराज्य आ गया है? अब तो बहुत अफ़सोस है कि   पहले गोरे अँग्रेज़ों की पुलिस लाठी मारकर लहुलुहांन करती थी; अब काले अँग्रेज़ों की पुलिस आ गयी  है जो भारत वासियों को लाठी मारकर लहूं लुहान करती है. अंतर बस इतना है पहले गोरे अँग्रेज़ों के आदेश पर होता था आज काले अँग्रेज़ों के आदेश पर सब होता है. काम तो वही होता है. कई बार मेरा दिल रोता है. कई ऐसी घटनाए होती है.  कुछ  दिन पहले एक घटना घटित हुई दिल्ली मैं. मैं दूरदर्शन  पर समाचार देख रहां था।   कुछ  अंधे लोगो  की संस्थाओं ने अपनी माँग सरकार के सामने प्रस्तुत करने के लिए जुलूस निकाला. दिल्ली मैं एक स्थान है जिसका नाम  है जंतर मंतर, आज कल सारे जुलूस जंतर मंतर पर निकलते है और वहीं ख़तम हो जाते हैं; उससे आगे  जाने नही देते है. तो जंतर मंतर   पर अंधे लोगों के संस्था जिसका नाम है "राष्ट्रीय अंध  संस्था"  उनकी तरफ से जुलूस निकाला गया. अंधे व्यक्ति देख नही सकते इसलिए हर अंधे व्यक्ति के साथ एक ऐसा व्यक्ति था जो देख सकता था. वे अपनी छोटी  सी मांग   प्रस्तुत कर रहे थे,  सरकार के सामने. माँग क्या थी की अंधे लोगों को यात्रा करते हुए टिकिट पर मिलने वाली छुट  उस सहयोगी को भी  मिले जो उनकी सहयता के लिए यात्रा करता है. कोई बड़ी माग नही थी, साधारण सी माग थी. इस माँग को प्रस्तुत करने के लिए अंधे लोग इकट्ठे हुए और हमारे काले अँग्रेज़ों की सरकार ने वर्बरता से लाठियाँ  चलाई जसमें सत्रह अंधे लोगों के सिर फॅट गये; लहू लुहान  हो गये क्योंकि अंधे लोग तो अपनी जान बचाने के लिए भाग नहीं सकते क्योंकि वो देख नही सकते ऐसी पुलिस  की हमारी व्यवस्था है. उस दिन मैने अपने आप से पूछा की क्या देश आज़ाद  हो गया है? क्या हम स्वतंत्र  हो गए  है क़ानून तो वही चल रहा है; व्यवस्था  तो वही चल रही है.

 

एक और घटना सुनाता हूँ मैं आपको. एक वार विकलांगो ने अपनी कुछ  माँगों को  लेकर प्रदर्शन किया; जिनके पैर  पोलियो ग्रस्त थे. आप जानते है जिनके पाँव  पोलियो ग्रस्त  होते है वो हाथ से साइकिल चलाकर अपन काम चलाते है. तो हाथ से साइकिल रिक्शा सैकड़ो मील चला  करके लोग इकट्ठे हुए, अपनी माँगो को प्रस्तुत करने के लिए.पुलिस ने उन पर भी लाठियाँ चलाईं. उनकी साइकलें  तोड़ी गयी , उनके सिर फोड़े गये उनकी टांगे  तोड़ी गयी.

 

 और एक घटना सुनता हूँ मैं आपको.भारत में एक राज्य है, राजस्थान।  थोड़े दिन पहले तक वहाँ पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी, वहाँ की मुख्यमंत्री थी बसुंधरा राजे सिंधिया. वसुंधर राजे शिंधिया सरकार ने राजस्थान मैं एक फ़ैसला किया. फ़ैसला क्या किया की गाँव  गाँव  में शराब की दुकाने खोली जाएँ.ये फ़ैसला   उस सरकार का था जो भारतीय संस्कृति की  बात करती है, जो सभ्यता की बात करती है, जो राष्ट्रीयता  की बात करती हैं. हर गाँव   में शराब की दुकान खोली जाए; हर व्यक्ति को शराब में डुबो दिया जाए; ये उनकी नीति और ये उनका फ़ैसला. किसानों ने इसका विरोध किया.  किसानों ने कहा हमें गाँव  में शराब नही चाहिए; हमें पीने के लिए और खेत के लिए पानी चाहिए.. हमें पीने को पानी मिले और खेतों के लिए पानी मिले इसकी व्यवस्था सरकार करें वहाँ तक तो ठीक है हमें शराब नही चाहिए. परिणाम क्या हुआ किसानों ने अपनी इस माँग को लेकर रैली  निकाली और बसुंधरा सरकार ने उस रैली के उपर गोली चलवाई और 14 किसांन  एक ही दिन में तत्काल मारे गये. ऐसी है हमारी पुलिस व्यवस्था और ऐसी है हमारी राज्य  वयवस्था. वसुंधरा राजे सरकार को कुर्सी से उतारकर सबक सीखा दिया वहाँ के लोगों ने. अहंकार और मद में चूर कोई मुख्यमंत्री इस मूर्खता के फ़ैसले  के साथ अपने आप को  प्रस्तुत करे तो ऐसों को तो मुख्यमंत्री पहले बनना ही नही चाहिए, और बने तो कान पकड़ कर उनको नीचे ही उतार देना चाहिए; उनको विठा  कर रखने की कोई ज़रूरत नही है.  मुख्यमंत्री को तो कुर्सी से उतार दिया है और उनकी पार्टी को उसका  दंड मिल गया और इतना पक्का मिल गया है की पार्टी में ही खदर-बदर मच गयी  है. अब ये पार्टी बचेगी की नही ये प्रश्न  खड़ा हो गया है पूर देश के सामने. मैं उसके  बारे ज़्यादा टिप्पणी  नही करना चाहता हूँ. पर मुद्दे की बात ये है की राष्ट्रीयता और संस्कृति की बात करने वाली सरकारें भी पुलिस का वैसा ही इस्तेमाल करती है जैसा अंग्रेज सरकरे करती थी.पुलिस उनके लिए वही है जो अँग्रेज़ों के लिए थी , लाठियाँ चलाने वाली, सिर फोड़ने वाली, गोलियाँ चलाने वाली.

 

एक और उदाहरण देता हूँ आपको पश्चिम बंगाल का जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है. वहाँ पर एक छोटा  सा गाँव  है उसका नाम है सिंगूर. सिंगूर के किसानो से ज़मीने छीने  गयी, ज़मीन बचाने के लिये  किसानॉ ने संघर्ष किया और अपने  आपको उन्होने  पुलिस के सामने खड़ा पाया. तो बंगाल की सरकार ने भी पुलिस को वही आदेश दिया जो राजस्थान सरकार ने दिया था. गोली चलाओ लोगों को मार डालो; एक दिन के अंदर 17 लोगों की जाने गयी. 21 लोग अगले दिन मरे और गोलियाँ चला चला के लोगों को लहू लुहान कर दिया. बंगाल की सरकार  ने जो अपने  आप को कम्मूनीस्ट कहते  है सर्वहारा वर्ग का  प्रतिनिधि कहती है. जो अपने आप को ग़रीबों का मसीहा कहतें है उनके राज्य  में भी  पुलिस ग़रीबों को ही मारती है. सर्वहरा को ही मारती है मतलब सीधा सा ये है राजस्थान की पुलिस हो या बंगाल की पुलिस चरित्र सबका एक ही है. बी जे पी के सरकार में घटना  हो या कांम्युनिस्ट सरकार में चरित्र सबका एक ही है, कानून  एक ही है , व्यवस्था एक ही है, तरीके के एक ही है. इसलिए में कई बार अपने आप से पूछ  लेता हूँ क्या देश आज़ाद हो गया है? जब अँग्रेज़ों के जमाने के क़ानून आज भी चल रहे है तो कैसे  माने की हम आज़ाद हो गये है. जिससे क़ानून  से लड़ते हुए शहीदे आज़म भगत सिंह  ने अपनी जान दी ,  वो क़ानून अभी भी जीवित है. लाला लाजपत राय ने जिस  अत्याचार को  सहते हुए अपनी जान दी  है वो क़ानून अभी भी जीवित है.जब तक ये इंडियन पुलिस एक्ट नही बदला जाता तब तक लाला लाजपत राय की आत्मा को शांति नही मिलेगी और हम उन्हे श्रधांजलि   भी नही दे पाएँगे.

 

एक और उदाहरण  से आपको समझाता हूँ की देश कितना गुलाम है. अंग्रज़ी सरकार में एक अधिकारी आया उसका नाम था डलहौजी, आपने किताबों में उसका नाम पड़ा होगा. बहुत अत्याचारी  और बहुत क्रूर. उसकी क्रूरता की कहानियों से मोटी मोटी कितबे भर जाएँ इतनी अत्याचार य और क्रूर कृत्य उसने इस देश में किए. उसने क्या  काम किया था. जब बो एक बड़ा अधिकारी बना  तो उसने इस देश में एक नया क़ानून वनवाया . ये क़ानून लंदन की संसद से पारित हुआ . इस क़ानून का नाम था  भू अधिग्रहण  क़ानून अँग्रेज़ी मैं जिसे "लेंड़ एकुजेसन  एक्ट".  सही शब्दों मैं इसको ज़मीन को छीनने  का क़ानून कहना चाहिए. ज़मीन को लूटने का क़ानून. जब किसी की मर्ज़ी से लिया जाता है तो उसे अधिग्रह्न कहते है. आपने अपनी ज़मीन किसी को बेची तो वो कहा सकता है  कि  उसने अधिग्रहण किया, जब किसी की इच्छा की विपरीत कुछ  लिया जाता है तो वह अधिग्रह्न नही होता वो तो लूटना होता है या छीनना  होता है. तो डलहौजी ने यही क़ानून बनाया, ज़मीन को लूटने का और छीनने का और नाम रख दिया "लेंड़ एकुजेसन  एक्ट" या "भू अधिग्रहण  क़ानून" .  इस क़ानून के लागू होते है डलहौजी ने एक नया काम शुरू किया. वो गाँव गाँव  जाता था और जो गाँव  की पंचायते होती है उनके उपर एक नोटिस  लगाता  था. उस नोटिस  में लिखा जाता था की इस गाँव  में जिस किसी की अपनी भूमि है वो  डलहौजी के सामने सिद्ध करे की ये भूमि उसकी अपनी है.

इस क़ानून के लागू होते ही डलहौजी ने एक नया काम शुरू किया. वो गाँव  गाँव जाता था और जो गाँव की पंचायते होती है उनके उपर एक नोटिस लगाता था. उस नोटिस में लिखा जाता था की इस गाँव में जिस किसी की अपनी भूमि है वी डलहौजी के सामने सिद्ध करे की ये भूमि उसकी अपनी है. डलहौजी के सामने किसान आते थे वताते थे की ये ज़मीन हमारी  है. डलहौजी पूचछता  था कैसे? किसान बताते थे की हमें हमारे पिताजी ने दी है; हमारे पिताजी को उनके पिताजी ने दी है. हमारे यहाँ ज़मीन के हस्तांतरण का तरीका यही है. वार्ता से ही  हमारे यहाँ ज़मीन हस्तांतरित होती आई है. तो  डलहौजी उनसे कहता था की कागज दिखाओ. तुम्हारे पास कोई काग़ज़ है सबूत का? कागज कौन रखता था इस देश में? हमारे यहाँ  तो मुँह से निकली बात कागज से ज़्यादा पक्की मानी जाती थी. हमारे यहाँ जब तक कागज के चलन की व्यवस्था  नही थी तब तक मुँह से कही बात कागज से ज़्यादा महत्व  रखती थी. और उस मुँह से निकली बात के लिए साम्राज्या चले जया करते थे . लोग  अपने बात की रक्षा करने के लिए इतने  प्राणपण से काम किया करते थे. गोस्वामी तुलसी दास की लिखी चौपाई आपने सुनी होगी।  "रघुकुल रीत सदा चल आई  प्राण जायं पर बचन ना जाई". बचन दे दिया बस बात ख़तम हो गयी कागज क्या होता है? उसके उपर तो कभी भी कुछ  लिखा जा सकता है. आज एक लाइन लिख सकते है कल दूसरी लाइन लिख सकते जो उसके एक दम उल्टी है. और कागज का कोई महत्व  नही होता. लेकिन डलहौजी ये कहता था की कागज दिखाओ , कागज किसी के पास होता नही था तो.डलहौजी ये एलान करता था की आज से ये ज़मीन अंग्रेज सरकार की है. इस तरह किसानों से ज़मीन छीन न कर अँग्रेज़ी सरकार को देदी  जाती थी. मैने डलहौजी के समय का सारा इतिहास पड़ा,  मुझे बहुत दर्द ये कहत हुए कि  10 करोड़ किसानों से ज़मीने छीने थी  डलहौजी ने.  डलहौजी का प्रशासन  और पुलिस एक एक दिन मैं 25 हज़ार किसानों से ज़मीन छीन लेते थे. गाँव  गाँव उनकी अदालतें लगती थी और किसानों की ज़मीने छीनी  जाती थी.  डलहौजी की इस नीति के चलते 10 करोड़ किसान भूमिहीन  बन गये थे.

 डलहौजी की जिस क़ानून के चलते 10 करोड़ किसान भूमिहीन हो गये,  डलहौजी का ये क़ानून आज भी इस देश में चलता है. वो बदला नही है. और आज  भी इस देश की सरकारें  डलहौजी के तरीके से ही ज़मीने छीन  रही है. किसानों की लाखों एकड़ ज़मीन सरकार के कब्जे  मैं जा रही है और सरकार के एजेंट उन ज़मीनों का सौदा कर रहें है. किसानों से ज़मीने खरीदी जा रही है 15 रुपये / वर्ग गज और दलालों और पूंजी पतियों को बेची जा रही हैं 1500 रुपये/ वर्ग फीट. आप जानते है , समाचार आप सुनते हैं अख़बार आप पढ़ते हैं. इस देश मैं सरकार की कुछ  व्यवस्थाएँ चलती हैं.  एक व्यवस्था चल रही है  "स्पेशल एकोनॉमिक जॉन, एस. ई. जेड"  बनाया जाए।  इस देश मैं.  उसके लिए गाँव की ज़मीन को नोटिफाइ किया जाता है और एक साथ सरकार 40, 50 गाँव की ज़मीन सरकार छीन लेती है. रातों रात नोटिस आता है, भारत देश का कलेककटर   नाम का अधिकारी जो अँग्रेज़ों के जामाने मैं भी होता था. वो गाँव की पंचायत को नोटिस थमाता है की गाँव खाली कर दो क्योंकि आपकी ज़मीन एस ई जेड के लिए हमें चाहिए. लाखों एकड़ ज़मीने पिछले 15 सालों में सरकार ने किसानों से छीनी है. मेरे पास जो दस्ताबेज है उनके हिसाब से करीब 25 से 30 लाख एकड़  ज़मीन सरकार ने बड़ी बड़ी कंपनीओ को बेच दी है कौड़ी के भाव. मेरा जन्म स्थान उत्तर प्रदेश के अलीगण  जिले में है. मेरे जिले के पास में एक दादरी नाम का छोटा  सा कस्बा है. दादरी कस्बे के 170 गाँव  की हज़ारों एकड़ ज़मीन किसानों से छीन  कर रिलांस ग्रूप के धीरू भाई अंबानी को उत्तर प्रदेश सरकार ने बेची. ऐसे बेची जैसे सरकार धीरू भाई  अंबानी की कंपनी की एजेंट बनकर काम कर रही हो. किसानों पर लाठियाँ बरसाई गयी गोलियाँ चलाई गयीं और ज़बरदस्ती ज़मीने छीन कर रिलायंस को बेची गयी . क्या करेगा रिलायंस ? कहा गया कारखाना लगाएगा।  बिजली बनाने का कारखाना  मेरे जैसे आदमी ने जब हिसाब निकाला तो पता चला की 250 एकड़ ज़मीन में वो कारखाना आराम से लग सकता है।  उसके 50 से 60  हज़ार एकड़ ज़मीन की कोई ज़रूरत नहीं है. तो जब हमने आर टी आई इक्ट में उस ज़मीन  मामला  डाला तो पता लगा की वहाँ कोई बड़ा शहर बनेगा रिलायंस का. वो ज़मीन किसानों से 15 रुपये प्रति वर्ग मीटर में ली गयी है. शहर बनाने के बाद वो ज़मीन 15 हज़ार प्रति वर्ग मीटर मैं बेची जाएगी और बीच का मुनाफ़ा रिलायंस को मिलेगा. ये ज़मीन किसानों की है रिलायंस के बाप की नहीं है लेकिन मुनाफ़ा रिलायंस की तिजोरी में जाएगा ऐसे इस देश की सरकारें काम करती हैं, कभी रिलायंस के लिए कभी टाटा के लिए , कभी कोलगेट के लिए कभी हिन्दुस्तान लीवर के लिए. पहले सरकारें काम करती थी ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए आज सरकारें काम करती हैं रिलायंस और टाटा के लिए।  कैसे कहें देश आज़ाद है? कैसे मान ले की स्वंतन्त्रता  आ गयी  है. और एक दुखद  बात बताएँ आपको की जिस गाँव  की ज़मीन सरकार छीन लेती है उसका मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में भी नही हो सकता हैं. आप जानते है क्यों? चालाकी हमारे देश के काले अँग्रेज़ों ने की . जब संविधान बना तो "लेंड़ अकिवजिसन  एक्ट" को नवी अनुसूसची में डाल दिया. जिससे इसको किसी अदालत में भी चुनौती नहि दी  जा  सकती. इस लिए हर किसान तड़प्ता है विलखता है।   ज़मीन एक बार हाथ से चली जाती है तो बापस नही आती है. बेघर और बेकार होकर दर बदर की ठोकरें खाते हैं. अगर आज भी डलहौजी  का क़ानून इस देश में चलता है तो कैसे कहे कि  देश आज़ाद हो गया है. मुझे तो लगता है कि  डलहौजी  अभी मारा नही है बल्कि उसकी आत्मा इन काले अँग्रेज़ों में प्रवेश कर गयी है. सांडर्स  मरा नही है उसकी आत्मा पुलिस अधिकारियों में प्रवेश कर गयी है, जो हमारे लोगों के सिर फोड़ रहें है. आज़ादी पूरी तरह से आई नही है सिर्फ़ अधूरी आई है.

और एक उदाहरण देता हूँ आपको. इस देश में और एक और क़ानून बनाया गया  1860 में इस  क़ानून बना जिसका नाम है  "इंडियन पीनल कोड" यानी की भारतीय  दंड सहिंता।   यहाँ  जो कोई बकील मित्र बैठे होंगे उनको ये समझ आजाएगा. भारतिया दंड सहिंता ( आई. पी. सी.)  बनाई अँग्रेज़ों ने . जिस अंगरेज ने इसको बनाया उसका नाम था टी  वी  मैंकौले. इसने भारत  में दो ही  सत्यानशी काम किए, एक गुरुकुल पर आधारित शिक्षा व्यवस्था को नष्ट  किया और दूसरा यहाँ  की न्याय व्यवस्था को ख़त्म किया. मैंकले ने जब आई पी सी की रचना की तो इंग्लेंड  संसद में उसको पूछा  गया की तुम ने  भारत के लिए जो क़ानून बनाया है. उसके बारे में बताइए. तो मैंकौले  इंग्लेंड  संसद में बयान दे रहा है और कह रहा है की मैने कोई नया काम नही क्या है. हमने जो क़ानून आयरलेंड को गुलाम बनाने के लिए दसवीं  शताब्दी मैं बनाया था वही मैने भारत के लिए बना दिया है 17 वी शताब्दी मैं. अंतर सिर्फ़ इतना है की उसका नाम था आयरिस पीनल कोड और इसका नाम रख दिया है इंडियन पीनल कोड भारत को गुलाम बनाने के लिए. आगे  वह कहता हैं की जब भी भारत के लोगों को न्याय देने की कोशिश की जाएगी "आई पी सी" के आधार पर तो न्याय इन को  कभी नही मिलेगा. हर बार इनके साथ अन्याय ही होगा. और जो संमाज गुलाम बनाया जाता है उसको अन्याय ही करना पड़ता है; न्याय देकर उसको गुलाम नही बना सकते. तो भारत को अन्याय देने के लिए "इंडियन पीनल कोड" का क़ानून बनाया गया. वो ब्रिटिश संसद में बयान देता है की मैने जो क़ानून बनाया है उसके अनुच्छेद इतनी जटिलता से लिखे गाएँ है की बार बार पढ़ने पर भी समझे ना जा सके. मेरे बहुत सारे बकील मित्र है जो ईमानदारी से मुझे कहते है  "राजीव भाई !  हम किसी भी क़ानून को पढ़ कर समझ सकते है "आई पी सी"  कभी समझ  मैं नही आता." ऐसी गोल गोल जलेबी जैसी भाषा है और इतनी ज़्यादा है की पहला वाक्य  पढ़ें तो आखरी याद नही रहता और आखरी पढ़े तो पहले के सारे भूल जाते हैं. क्या न्ये  मिलेगा ऐसे क़ानून के आधार पर. एक और क़ानून बनाया "सी आर पी सी"  और एक क़ानून बनाया "सी पी सी". इन तीनों क़ानूनों के आधार पर हमारी अदलातें  चलती है; आज़ादी के 62 साल के बाद भी . आई पी सी मैं हमारे  देश के आज़ादी के बाद थोडा  भी सांसोधन नहिएन  हुआ. सी आर पी सी मैं भी नही और सी पी सी मैं भी नही. जो थोड़े बहुत सांसोधन हुए वो वही है जो अँग्रेज़ों वालें हैं. भारतीय  तरीके के संसोधन नहीं हुए. अब दुष्परिणाम क्या हुआ की इस व्यवस्था मैं 10 करोड़ लोग न्याय के लिए भटक रहे हैं. अपनी एडियाँ  और चप्पलें घिस रहे है उनको न्याय नही मिल रहा है, नही उनके मुकदमों का फ़ैसला हो रहा है. साढ़े टीन करोड़ मुक़दमें चल रहे हैं, मुक़दमें में एक बाड़ी ओए एक प्रतिबाड़ी होता हो तो सात करोड़ लोग फ़ैसले के लिए भटक रहे है.  इनको न्याय मिलने   की  दूर  दूर  तक कोई उम्मीद  नही है. क्यों की एक एक मुक़दमा चलते 40 साल 50 साल हो गये. तारीख पर तारीख पड़ती ही जा रही है न्याय मिलने की उनकी आशा धूमिल होती जा  रही है.

 

एक बार मैने भारत के एक पूर्व न्यायाधीश को प्रश्न किया था और उनको पूछा था  की आपके  अदालतों में जो साढ़े तीन  करोड़ मुक़दमें चल रहें हैं इनका फ़ैसला कब तक  आ जाए गा? तो उन पूर्व मुख्या  न्यायाधीश ने कहा था की जब तक ये "आई पी सी" और "सी आर पी सी" चल रहें है और ये अँग्रेज़ों वाले ही चलते रहेंगे और इन में  संसोधन नही होगा तो मुक़दमों  का फ़ैसला 350 से  400 साल में आएगा. मतलब सीधा सा है, ना बादी  जिंदा रहेगा ना प्रतिबादी  ज़िंदा रहेगा,  दोनो ही मर जाएँगे; बकीलों के घर भरते चले जाएँगे उनकी जेबें भरती चली जाएँगी. मुकदमों का फ़ैसला नही आएगा. क्योंकि मुक़दमें जिस आधार पर निबटाए जा रहे हैं  वो क़ानून ही नही है फ़ैसला देने के लिए। 

मैने तो एक बार बहुत क्रोध  मैं कहा था  एक न्यायाधीश महोदय  को "क्या आप अपने आप को न्यायाधीश मानते है?"  तो वह कहने ल़गे  हम मानते तो नही  है ; लेकिन लोग हमको न्यायाधीश कहते है. हम नही मानते।  मैने पूछा क्यों? हम न्याय देते नहीं तो न्यायाधीश कैसे? उन्होने ईमानदारी से ये स्वीकार किया की हम न्याय नही देते. हम तो मुकदमों का निपटारा करते हैं. मुक़दमें का निपटारा होना एक अलग बात होती न्याय मिलना दूसरी बात होती है. मैं एक उदाहरण  से समझाता हूँ की मुक़दमें का निपटारा और न्याय में क्या अंतर होता है.

 हमारे देश में एक क़ानून है ये भी अँग्रेज़ों के जमाने का है, आज का नहीं है.  आज  अँग्रेज़ों के बनाए हुए 34000 से ज़्यादा  क़ानून है. इस क़ानून का नाम है "क्ृयलिटी अगेंस्ट एनिमल एक्ट" अर्थात पशुओं के विरुद्ध क्रूरता अधिनियम . ये क़ानून क्या कहता है ?  गाय को डंडे से मारो तो जेल हो जाएगी; ये क़ानून है. लेकिन हमारे देश में उसी गाय को  गर्दन से काट दो और उसके माँस की  बोटी-बोटी बेच दो तो कुछ  नही होगा. आप ज़रा सोचो!  गाय को अगर डंडे से मारो तो जेल और उसकी जान लेने पर कोई सज़ा नही. अगर ऐसी स्थिति  के क़ानून बनेगे तो न्याय क्या मिलेगा. न्याय तो ये कहता है की जिस गाय को आप जन्म नही दे सकते उसे मार ने का अधिकार आपको नही है. ये सिर्फ़ गाय तक सीमित नही है वल्कि  सारे जगत  के प्राणियों तक पर लागू होता है. सभी जीव वैसे ही ज़िंदा रहने चाहिए जैसे आप रहेते है; ये न्याय  है.

 

हमारे देश में और एक क़ानून है की बच्चे को जन्म लेने से पहले मारो तो गर्भपात और बाद में मारो तो हत्या.  हत्या में धारा 302 का मुक़दमा चलता है और  फाँसी की सज़ा होती है गर्भ पात में कोई सज़ा नही होती है. जब की दोनो ही हत्या  हैं; जन्म से पहले माँ रो तो भी और बाद में मरो तो भी. एक मैं सज़ा फाँसी और दूसरे में सज़ा मामूली. इस लिए हर साल लाखों बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है. और इसी का दुष्परिणाम है की पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या तेज़ी से घटी जाती है. आज इस देश में पुरुष 1000 हैं तो महिलाएँ 850 हैं. एक दिन ऐसा होगा की महिलाएँ 1000 की तुलना में 500  ही रह जाएँगी. कौन सा समाज बनेगा ? कौन सा देश बनेगा? कौन सी सभ्यता बनेगी आप  सोचो !   अगर दोनों को ही हत्या परिभाषित कर दिया जाय तो गर्भपात के लिए भी  फाँसी की सज़ा होने लगेगी . अगर ऐसा होज़ाये  तो इस देश में करोड़ो बेटियों  और  बहिनों की हत्या तत्काल रुक जाएगी .  इन काल का ग्रास बनने वाली करोड़ो बेटियों में से कोई लक्ष्मी बाई भी बन सकती थी; कोई झलकारी बाई या चित्तूर चेन्नाममा बन सकती थी और अपने मान बाप का नाम रोशन कर सकती थी. अगर क़ानून मूर्खता पूर्ण  बने है तो  फ़ैसले भी मूर्खता के ही हो रहे हैं.

 

एक और उदाहरण देता हूँ क़ानून और न्याय का . एक और क़ानून इस देश में बना जिसका नाम है मोटर वेहिकल एक्ट. ये क़ानून भी अँग्रेज़ों के जमाने का बना हुआ हैं . इस क़ानून मैं व्यवस्था क्या है; अगर आप किसी व्यक्ति को गाड़ी के नीचे कुचल कर मार डालो तो गैर इरादतन हत्या का मुक़दमा बनता है जिसकी सज़ा कुछ  साल का कारावास है.  यदि  उसी व्यक्ति  को गाड़ी से नीचे उतारकर मार डालो तो इरादतन हत्या का आरोप लगता है जिस्मैन 14 साल की सज़ा या फाँसी हो सकती है. अब मुझे आप बताइए की गाड़ी मैं वैठे-वैठे मैने किसी को कुचल दिया या गाड़ी से वहर निकल कर मैने उसको मार दिया हत्या तो दोनों ही मैने की है. एक हत्या मैं 2 से 3 साल की सज़ा और एक हत्या मैं 14 साल की सज़ा ये कौन सा न्याय है. दुष्परिणाम जानते है क्या होता है ? इस देश के बिगडेल बापों के बेटे, जिनके पास बड़ी बड़ी लंबी गाड़ियाँ है  वो रात को शराब पीकर अंधाधुंध गाड़ियाँ चलते है. और ग़रीब लोगों को अपनी गाड़ियों के नीचे कुचल कर मार डालते है. जब अदालतों मैं आरोप तय होतें है तो उन्हें मुश्किल से दो से तीन  साल के सज़ा मिलती है. और कई बार वो वाइज़्जत बरी हो जाते हैं. एक घटना हमारे देश मैं ऐसी ही हुई थी. एक बिगड़ैल बाप का बेटा जिसका नाम है संजीब नंदा; उसने दिल्ली की सड़कों पर फुटपाथ पर सोए हुए मजदूरों के उपर गाड़ी चढ़ा दी थी; एक झटके मैं 8 लोगों को मार दिया था. अदालत ने उसको छोड़  दिया. बजह मोटर व्हिकल एक्ट. एक दूसरा बिगड़ैल बाप का बेटा है जिसका नाम है सलमान ख़ान, उसने मुंबई मैं बीसियों लोगों को अपनी गाड़ी के नीचे कुचल कर मार डाला है. छुटा  सांड़ की तरह वो इस देश मैं घूम ता रहता है; पुलिस उसका कुच्छ नही विगाड़ सकती, न्याय व्यव्स्था के मुँह पर वो तमाचा मरता है. कारण क्या "मोटर विकल एक्ट". जब  इस क़ानून का इतिहास जानने की मैने कोशिश की तो पता चला अँग्रेज़ों ने ये क़ानून बनाया था अपने लिए क्योंकि अंग्रेज मोटरें चलाया करते  थे. और गाड़ियाँ सिर्फ़ उन्ही के  पास हुआ करती थी ; अक्सर भारतिय लोग उनके गाड़ियों के नीचे अपनी जान गँवा देते थे. किसी अंग्रेज को फाँसी ना लगे इस लिए व्यवस्था ऐसी की गयी थी. वो अँग्रेज़ी  जमाने की व्यवस्था आज  भी जारी है और काले अँग्रेज़ों के बीच फल और फूल रही है. और हम भारत वासियों  की छाती  पर मूँग दल रही है. ऐसी देश की व्यवस्था है इसलिए मैं कहता हूँ की देश आज़ाद हुआ कहाँ है, अभी स्वतंत्रता आई कहाँ है. ऐसे मैं आपको सैकड़ो उदाहरण दे सकता हूँ. क्योंकि अग्रेज़ों के जमाने के बनाए हुए 34735 क़ानून ऐसे के ऐसे ही चल रहे है.

 

अँग्रेज़ों ने 1860 में एक क़ानून बनाया जिसका नाम रखा " इंडियन इनकम टॅक्स एक्ट" यानी  आपकी आमदनी पर कर लेने का क़ानून. दुनिया के इतिहास में पहली बार भारत से ये शुरू हुआ।  आमदनी पर कर लेने का क़ानून. मैने भारत के इतिहास मैं बहुत ढूँढा, कोई एक राजा ऐसा नही हुआ जिसने आमदनी पर कर लगाया हो. इस देश में तो ऐसे राजा हुए जो कहा करते थे की आमदनी पर कभी कर ना लगाओ; कर लगाना है तो खर्चे पर लगाओ. एक महान व्यक्ति हुए इस देश में हुए जिनका नाम था आचार्य  चाणक्य ; संयोग से वो इस देश के प्रधान मंत्री बन गये. और प्रधान मंत्री बनते ही उन्होने ये व्यवस्था की  की किसी के उपर कोई कर नही होगा; ये उनका दर्शन था. उनका कहना था की जिस राजा की  प्रजा पर  कर ज़्यादा होता है, वो राजय  दरिद्र होता है.  वो कहते थे प्रजा के उपर ज़्यादा कर लगाकर राजा के हाथ मैं ज़्यादा पैसा देना ख़तरे को निमंत्रण देना है; पता नही कब राजा का दिमाग़ फिर जाय और वो इसका दुरुपयोग करना शुरू करदे ; तो आअप क्या करेंगे. इसलिए वो कहते थे की पैसे लोगों के पास होने चाहिए और समाज के पास होना चाहिए. परिणाम जानते हा क्या हुआ; जब तक चाणक्य  इस देश के प्रधान मंत्री रहे ये देश सोने के चिड़िया के तरह था. क्यों की लोग संपन्न थे  लोगों के पास संपत्ति थी . चाणक्य  के रास्ते पर जो जो राजा इस देश में चला जैसे चंद्रा गुप्ता विक्रमा दित्य, चंद्रा गुप्त मौर्य , हर्ष वर्धन, समुद्र गुप्त; ऐसे वीसियों राजा थे जिन्होने चाणक्य  के इस दर्शन को अपनाया. परणाम ये हुआ जिस जिस राजा ने कर नही लिया उन सबके राज्य  मैं भारत और भारत वासी संपन्न रहे. अँग्रेज़ों ने पहली वार ये क़ानून बनाया और आमदनी पर टॅक्स लिया. ये क़ानून भी 1860 में पास हुआ. जब ये क़ानून 1860 में ब्रिटिश संसद मैं पास हुआ तो इस पर बड़ी बहस हुई. और उस बहस के सारे दस्तबेज ब्रिटिश पार्लिमेंट से मैने निकाले. उनका जब मैने अध्यन किया तो चित्रा कुछ  और ही दिखाई  दिया.

 

 अँग्रेज़ों ने ये क़ानून क्यों बनाया? पता ये चला की 1860 से पहले 1857 में जो क्रांति हुई थी , जिसे हम आज़ादी का पहला संग्राम मानते है. अंग्रेज इसे सैनिक विद्रोह कहते है. उस क्रांति मैं नाना साहब पेश्वा , रानी झाँसी लक्ष्मी बाई , तांत्या टोपे और   नाना फड़नबीस जैसे क्रांतिकारियों ने एक बड़ा समूह बनाया था. बहुत बड़ा सगठन तैय्यर किया. और ये संगठन बनाने का काम सन 1856 से शुरू हुआ था. कानपुर के पास वितूर मैं इनकी पहली बैठक हुई थी और इस बैठक मैं 4 लोग शामिल हुए थे;  जिसमें नाना साहब पेश्वा , तांत्या टोपे,  अजीबुल्लाह और  रानी झाँसी लक्षीमी बाई शामिल थे. इन चारों ने मिलकर ये तय किया  कि  अँग्रेज़ों के खिलाफ इस देश में एक बड़े संग्राम की स्थिति बनानी चाहिए. तो तय होगया. गाँव  गाँव घूमना  शुरू होगये  और एक साल के अंदर इतना बड़ा संगठन तैयार  होगया कि   पूरब से पश्चिम  और उत्तर से दक्षिण  350 स्थानों पर   एक साथ क्रांति के लिए  समूह बन गए . और इन सब ने मिलकर क्रांति की एक तारीख तय की,  31 मई  1857 और तय किया गया  का  अँग्रेज़ों का शाशन  उखाड़ कर फैंक दिया जाएगा. जब ये तय हो गया और उसके लिए प्रयास शुरू हुए तो एक दुर्घटना घटी . दुर्घटना क्या घटित हो गयी  भारत  देश मैं एक अमर शहीद  हुए उनका नाम था मंगल पांडे. मंगल पांडे को एक दिन ये पता चला की अँग्रेज़ों की सेना मैं जो  कारतूस इस्तेमाल होते हैं उनमे गाय के चर्बी लगी होती है. इस बात को पक्का करने के लिए एक अंग्रेज अफ़सर मेजर जनरल हुयुसन से संपर्क किया और पूछा की क्या ये बात सच है की कारतूस मैं गाय  की चर्बी है.हुयुसन ने कहा में कुछ  नही कह सकता  ये हो भी सकता है और नही भी. ये जबाब सुनकर मगल पांडे को गुस्सा आ गया. उन्होने कहा ये क्या  बात हुई; एक जबाब दी जये या तो ये सच है या तो ये झूठ. ह्यूसन ने कोई जबाब नही दिया और मंगल पांडे ने उसको गोली से मार दिया. जब एक दूसरे अधिकारी ने मंगल पांडे को पकड़ने की कोशिश की तो दूसरी गोली मंगल पांडे ने उसको उतारदी . इसके बाद मंगल पांडे को क़ैद करके मुक़दमा चलाया गया और 10 दिन के अंदर उनको  फाँसी की सज़ा देदी  गयी.मुक़दमा 29 मार्च को शुरू हुआ था और  मंगल पांडे को   8 एप्रिल 1857 को बैरक पुर की छावनी  मैं  अँग्रेज़ो ने  फाँसी पर चढ़ा दिया. जिस  छावनी मैं मगल पांडे को फाँसी दी गयी  थी उस छावनी   के 1100 सैनिकों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ  विद्रोह  कर दिया . उन्होने नौकरियाँ छोड़  दी , बर्दियाँ  उतार दी  और बैरक पुर  से थोड़ी दूर  गंगा नदी पर जाकर हाथ  मैं  गंगाजल लेकर ये कसम खाई की जिन अँग्रेज़ों ने मंगल पांडे को फाँसी दी है हम उन्हें भारत से निकाल कर ही दम लेंगे. ये 1100 सैनिक जगह जगह  फैल गये, और  छोटे  छोटे  समूह बनाकर गाँव -गाँव घर-घर जाकर गाय पर होने वाले  अत्याचारों  की कहानी सुनाने लगे.  अँग्रेज़ों ने उस जमाने मैं कुछ  कत्ल खाने खोले हुए थे जिनमें गायों को अंग्रेज कटवाते थे ओए हिंदुओं को चिढाते  थे. ये बात फैलती गयी, गाय  हमारे लिए पवित्र  है, हम उसका  कत्ल होते हुए नही देख सकते और कोई भी सामान्य  भारत वासी नही देख सकता. इससे धीरे धीरे भारतवासियों का खून उबलने लगा और क्रांति का माहोल  बनने लगा. ये माहॉल एक दिन फॅट गया  10 मई 1857 को मेरठ में।  कई क्रांतिकारियों ने अँग्रेज़ों को घर में जिंदा जला दिया और वहाँ से चिंगारी सुलगती चली गयी. 10 मई में मेरठ के बाद 11 मई को दिल्ली में अँग्रेज़ों को जलाया गया, उसके बाद बरेली, शाहजहाँ पुर  रुड़की , हरिद्वार, इटावा , एटा में अँग्रेज़ों को मारा गया. इसमें बहुत से अँग्रेज़ों मारे गये और जो बच गये थे और भागने की कोशिश कर रहे थे उनको भारत वासियों ने गले से काट दिया हसियों और गडस्सों से. इस क्रांति में 4 महीने , मई  से अगस्त के अंदर सारे देश में 3 लाख 64 हज़ार से ज़्यादा अंग्रेज मारे गये. 1 सितंबर 1857 को सारा देश अँग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हो गया था. पूरे देश में तिरंगा फहरा रहा था कहीं भी युनियन जेक नही था. हर एक रियासत इस देश की आज़ाद हो चुकी थी. इस पूरी लड़ाई में 4.5 से 5 करोड़ भारतीयों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ भाग लिया. ये लड़ाई कितनी बड़ी थी इस बात का अंदाज़ा लगाना आसान नही है. 5 करोड़ लोग यदि हसीए और तलवारों से भी लड़ रहे हों तो इतने औजार ब्नाने के लिए कितना लोहा लगा होगा. किसी ने तो लोहे को भट्टियों  में गलाकर औजार बनाए होंगे. मैने जब इतिहास खोजा तो पाया की  कच्चे लोहे से हसियान , तलवार और बंदूक के नाल बनाने का काम जिन लोगों ने किया उन्हें हम बंजारा जाति  के लोग कहते हैं. जो गाँव गाँव  अपना एक छोटा  सा आशियाना बनाकर रहते है.जो अपना पक्का घर कभी नही बनाते और किसी भी शहर या गाँव  के बाहर बस जाते हैं. उनकी एक छोटी  से बैलगाड़ी होती है जो उनकी जिंदगी ढोती  है. जहाँ ये गाडी खड़ी होती हैं वहीं ये गाँव  वास जाता है. थोड़े दिन रहने के बाद वो दूसरे गाँव  में चले जाते हैं. एक वार इन बंजार जाति के लोगों से मैने पूछा  की आप अपना पक्का घर बनाकर क्यों नही रहते. तो उन्होने मुझे बताया की जब हमारे राजा ने कभी अपना घर नही बनाया तो हम अपना घर कैसे बना सकते हैं. तो मैने उनसे पूछा आप का राजा कौन था? तो उन्होने कहा महाराजा राणा प्रताप हमारे राजा थे जिन्होने जिंदगी भर अपने लिए घर नहीन  बनाया तो हम कैसे बना सकते हैं. हम उनके वंशज  है और हम तब तक अपनी जिंदगी ऐसे ही गुज़ारेंगे जब तक हमारे राजा के प्राण हम में किसी मैं नही आते; पुनर्जनम नही होता. ऐसे बंजारा जाति के लोगो जिन्होने लाखों टन लोहा गलाया और  हसिया, तलवार और बंदूके बनाकर क्रांतिकारियों को दी. फिर मन में प्रश्न आता है की इतना सारा लोहा ख रीदने के लिए पैसे कहाँ से आए? किसी ने तो पैसे दिए होंगे. तो समाज के व्यापारियों और उद्योगपतियों ने पैसे दिए . अँग्रेज़ों के सरकारी दस्ताबेज बताते हैं की 1857 की क्रांति में 480 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. उस जमाने के 480 करोड़ रुपये को आज हम गिनना चाहें तो 300 से गुणा  करना पड़ेगा. इतनी बड़ी रकम व्यापारियों और उद्योगपतियों ने दान में दी.

 

तो अँग्रेज़ों की संसद में बहस ये हुई की इतनी बड़ी पूंजी आई कहाँ से. भारतवासियों ने ये पैसा कमाया था; वो कहीं से लूट के नही लाए थे . तीन  हज़ार साल से भारत के व्यापारी और उद्योगपति दूसरे देशों में अपना माल बेचने  जया करते थे और बदले में सोना और चाँदी कमा कर के लाते  थे. भारत का कपड़ा दूसरे देशों में विकता था. आपने सुन होगा ढाका का मल मल, सूरत की मल मल. मल मल का 15 मीटर का एक तान माचिस की एक डिविया में बंद हो जाया  करता था. 15 मीटर का थान   एक अंगूठी के छल्ले में से खींच कर निकाल सकते थे.इतनी बारीक बुनाई इस देश में हुआ करती थी.और वो कपड़ा बेचने  जब भारत के लोग जया करते थे तो आपको ये जान  कर अच्छा लगेगा की तराजू में एक तरफ कपड़ा और एक तरफ सोना रखा  जाता था. हमने कपड़ा बेचकर सोना कमाया है इस देश में. लोहा बेचकर सोना कमाया इस देश में. 36 तरह की भारत की वस्तुएँ विकने के लिए जाती थीं .  इससे बाहर का सोना चाँदी भारत में आता था. और तीन हज़ार साल तक भारत निर्यातक देश था।  दुनिया का. 33 प्रतिशत से ज़्यादा निर्यात पूरी दुनियाँ में हम करते थे. और 27 प्रतिशत से ज़्यादा दुनियाँ की आमदनी हमारी होती थी. इस कारण से देश सोने की चिड़िया होगया था. तो अंग्रजों की संसद में जब ये सारी बात बताई गयी की भारत वासियों के पास धन और संपत्ति कहाँ से आई.  तो अँग्रेज़ों ने तय किया की अब भारत वासियों के पास धन छोड़ना नहीं  है. वरना अगर ये धन भारत वासियों के पास रहेगा तो दुबारा फिर क्रांति होगी तीसरी बार फिर क्रांति होगी और हम तो भारत में राज नहीं कर पाएँगे इसलिए भारत वासियों का धन छीन लेना   चाहिए।  इसलिए अँग्रेज़ों ने क़ानून बनाया इन्डियन  इनकम टेक्स एक्ट. और क़ानून में व्यवस्था ये की गयी की बहरत में  यदि 100 रुपये की आमदनी हो तो उसके उपर 97 रुपये का इनकम टेक्स लगेगा . इससे भी अँग्रेज़ों को संतोष नही हुआ तो उन्होने एक और क़ानून पास किया की यदि भारत में कोई उद्योग पति किसी समान का उत्पादन कर रहा है तो उस पर भी कर लगाना चाहिए. वो 350 % उन्होने लगाई. इसके बाद उन्होने एक व्यवस्था की की भारत का व्यापारी यदि विदेशों में कोई समान बेचता हैं तो उसपर भी कर लगाना चाहिए उसको व्यापार कर कहा. माल को एक गाँव  से दूसरे गाँव लेकर जा रहे है तो ओकटरॉय टेक्स, पथ  कर , नगर पालिका कर, गृह कर , संपत्ति कर जैसे बीसियों तरह के कर उन्होने लगा दिए. उद्देश्य एक ही था भारत वासियों का पैसा लूटना है, अब अंग्रेज ये सारा पैसा लूट लूट कर इंग्लेंड ले जाने लगे. और इस कर व्यवस्था के चलते 100 साल के अंतराल में ये देश सोने की चिड़िया से कंगाल और भिखारी   देश बन गया. मुझे दुख इस बात का है की जब गोरे अंग्रेज टेक्स लगाकर भारत देश  का पैसा और समान लूटते थे, लंदन लेकर जाते थे, इस तरह लंदन अमीर होता चला गया और भारत ग़रीब होता चला गाया.

 

भारत  के क्रांति कारियो ने सपना देखा कि  एक दिन अंग्रेज चले जाएँगे तो उनका कर क़ानून भी चला जाएगा. भारत के लोगों की  लूट भी बंद हो जाएगी और भारत फिर से समर्थ  और संपत्तिवान देश वन जाएगा. 15 अगस्त 1947 के बाद गोरे अंग्रेज तो चले गये लेकिन टेक्स  के वही क़ानून फिर से इस देश में लगाए गये. एक भी टेक्स क़ानून इस देश के काले अँग्रेज़ों ने हटाया नही. अंग्रेज इस देश को लूट रहे थे और लूट का पैसा लंदन ले जा रहे थे. अब इन काले अँग्रेज़ों ने देश को 62 सालों  तक लूटा है और देश का पैसा ले जाकर स्विट्ज़रलॅंड की बैंकों में जमा कर ना शुरू  कर  दिया. लूट की तो दोनो ही व्यवस्थाएँ इस देश में चल रही हैं. कैसे कहें की देश आज़ाद हो गया है. अंग्रेज इस देश से एक साल में 70000 करोड़ रुपये लूटते थे 23 तरह के कर लगाकर , ये आँकड़े अँग्रेज़ी संसद के हैं. इन काले अँग्रेज़ों ने इस देश में आज़ादी के 62 साल के बाद 64 तरह के टेक्स लगाए हुए हैं और हर साल 20 लाख करोड़  रुपये देश से लूट रहे हैं. और लूट लूट कर ये धन स्विट्ज़रलेंड की बेंकों में जमा कर रहें हैं. भ्रष्ट  नेताओं के घर भर रहें है और आम आदमी कंगाल होता जा रहा है.  और इसे लोक तंत्र  कहते हैं; ये लोक तंत्र  है की लूट तंत्र  है. इस देश के नेताओं को मैं पूछता हूँ की आप 64 तरह के टेक्स क्यों लगाते हैं? अंग्रेज 23 टेक्स लगते थे आपने 64 लगाए।  करना तो ये चाहिए था की अँग्रेजो  के सारे टेक्स ख़तम कर देने चाहिए थे. तो काले अंग्रेज मुझे जबाब देते हैं की देश का विकास करना है; तो इसलिए पैसा चाहिए. तो फिर में काले अँग्रेज़ों से पूछता हूँ की 62 साल में देश का कितना विकास हो गया है? ज़रा बताइए.  आज़ादी के 62 साल में क्या विकास हो गया है; में आपको सरकार के आँकड़े बताता हूँ. भारत को 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेज छोड़  करे गये तो 4.5 करोड़ ग़रीब लोग थे अब आज़ादी के 62 साल बाद 84 करोड़ लोग ग़रीब हो चुके हैं. 

हमारे वर्तमान सरकार के जो प्रधान मंत्री हैं मनमोहन सिंह  इनकी सरकार ने एक कमीशन बऩा या था जिसका नाम था अर्जुंन सेन  गुप्ता कमीशन. इस कमीशन ने 5  सा तक देश का सर्वेक्षण  किया और वताया की देश के 84 करोड़ रोजाना 20 रुपये से कम पर गुज़र करते है; वे सब ग़रीब हैं. आज़ादी आई थी तो 4.5 लोग ग़रीब थे आज  84 करोड़ लोग ग़रीब हो गये हैं,  इस देश में 21 ग़रीबी गुना बढ़ गयी है. काले अँग्रेज़ों को मैं पूछता हूँ की  ग़रीबे इतनी कैसे बाद गयी इस देश  मैं।  तो मूर्ख बनाने बाला उत्तर देते  है. और वो समझतें है की जैसे मैं तो मूर्ख बन जाऊँगा. वो नेता  मुझे उत्तर देते हैं   इस देश की आबादी ही बढ़  गयी है.  फिर मैं उन से कहता हूँ अच्छा  आबादी कितनी बढ  गयी है? आज़ादी के समय देश की आबादी 32 करोड़ थी आज 115 करोड़ है तो  मान लो साढ़े तीन  गुना बढ  गयी तो ग़रीबी भी 4 गुना बढ़नी चाहिए और 16 करोड़ के पास होनी चाहिए ये 84 करोड़ कहाँ से हो गयी.  अगर आबादी 4 गुना बड़ी है तो ग़रीबी 21 गुना कैसे बढ़  गयी ?  तब वो जबाब नहीं  दे पाते हैं; तब मैं जबाब देता हूँ  कि  इसका जबाब मेरे पास है. आज़ादी के 62 साल में इस देश के लोगों की लूट 21 गुना वढ  गयी इस लिए ग़रीबी 21 गुना बाद गयी. इतनी लूट इस देश में हो रही है.

 

एक प्रधान मंत्री इस देश में हुए जिनका नाम था राजीब गाँधी. उन्होने 1984 में संसद में ये बयान दिया की जब में एक रुपया दिल्ली से किसी ग़रीब आदमी के लिए भेजता हूँ तो उसके पास केवल 15 पैसे पहुँचता है. ये 1984 में कहा था अब 2009 आ गया है; ब्रष्टाचार बढा  है कम नही हुआ है. अब जब 1 रुपया दिल्ली से ग़रीब आदमी के लिए जायेगा  तो शायद  ग़रीब  आदमी तक 10 पैसा भी नहीं  पहुँचता है. लूट का 90 पैसा नेताओं और  अधिकारियों की जेब में चला जाता है. ये मैं ने नही कहा ; राजीव गाँधी ने कहा. और राजीव गाँधी ने जो बात कही  उसे कोई भी माई   का लाल प्रधान मंत्री झूठहला नहिएं सका. एक भी प्रधान मंत्री ने ये नही कहा के राजीव गाँधी ने ग़लत कहा. सब प्रधान मत्री स्वीकार करते हैं की  लूट होती है. अब ज़रा अंदाज़ा लगाइए की आपके टेक्स के दिए पैसे के 90 प्रतिशत पैसे की  लूट हो रही है ये सीधा सा मतलब है. और हम  टेक्स का कितना पैसा देते है. केन्द्र सरकार को 6.5 लाख करोड़ का टेक्स देते हैं,राज्य  सरकार को मिला कर 12 लाख करोड़ का टॅक्स देते हैं. और सारे टेक्स मिलकर 20 लाख करोड़ का टेक्स सालाना देते हैं. केन्द्र सरकार से लेकर जिला स्तर तक ग़रीबी दूर करने  की योजनाएँ बनती है और ये ग़रीब ही दूर नहीं होती है इस देश की. मैने तो जब अभ्यास किया तो पता चला ग़रीबी तो नेताओं की दूर हो रही है, अधिकारियों की दूर हो रही है आम आदमी की नहीं . नेता और अधिकारी जो लूट रहे है उससे उनकी ग़रीबी दूर हो रही है.

 

मैने इस देश के कुछ  नेताओं के जनम कुंडली बनाई है; वो जनम कुंडली क्या है? वैसी नहीं जैसी ज्योतषी  बनता है. मैने जो जनम कुंडली बनाई है वो ऐसी: कि  20 साल पहली जिन के पास एक टूटी साइकिल नही  थी, आज उनके पास कितनी संपत्ति है; वो जनम कुंडली बनाई है. 420 नेताओं की अभी तक बना जा चुका हूँ. 420 नेताओं की जो जनम कुंडली बनकर जो तैयार हुई है वो ये बताती है की  20 साल पहले जिन नेताओं के पास एक टूटी साइकिल नहीं  होती थी उन नेताओं के पास आज 20 -20 हज़ार करोड़ की संपत्ति है. मैं विन  नाम लिए आप को वताता हूँ एक नेता है महांराष्ट्र  में. जिसे पास 20 साल पहले खाने को पैसा नहीं  था; विल्कुल सड़क छाप आदमी था; आज उसके पास बंबई से लेकर पूना तक हज़ारों हेक्तेयार  ज़मीन है एक नेता के नाम पर. और आप उसको पहचानते है और खूब अच्छे से जानते हैं इसलिए नाम बताने के ज़रूरत नहिएं है. एक नेता है बंबई में 20 साल पहले दादर स्टेशन पर भाजी पाला बेचता था. आज उसके पास बंबईशहर में 25 हज़ार करोड़ की संपत्ति है. एक नेता है वो नासिक में सिनेमा का टिकिट ब्लेक करता था 20 साल पहले; आज उसके पास महांराष्ट्र  में 30 हज़ार करोड़ के संपत्ति है. और इन नेताओं का एक एजेंट है जिसका नाम है हसन  अली जो पूना में रहता है उसकी स्विस अकाउंट में 72 हज़ार करोड़ की संपत्ति थी. जब  सी बी आई ने उसको पूछना  शुरू किया  की टुमरे खाते में 72 हज़ार करोड़ कैसे  आए तो उसने  बताया की वीसियों नेताओं ने पैसा मेरे पास रखा है और मैंने  उसे स्विस बेंक में जमा किया  है.  जब हसन अली से कुछ  लोगों ने कहा की नाम बता दो, तो उसने कहा क्या करोगे?  जानते तो आप भी हो ; मैं ही क्यों बता दूं ? फिर उसने कहा की आप मेरे खिलाफ मुक़दमा करो और मेरा नारको टेस्ट करवा दो तो में सबके नाम बता दूँगा. ऐसे बताऊँगा तो ये मार डालेंगे. अगर आप नारको टेस्ट करा दोगे तो ये मेरा कुछ  नहीं  बिगाड़ पाएँगे मेरा;  और मैं नाम भी बता दूँगा और इनकी छाती  पर मूँग भी दलूँगा. ऐसे है इस देश के नेता जो हमारे और आपके विकास में लगने वाले धन को लूट रहे हैं. अब अगर राजीव गाँधी के फ़ॉर्मूले से हिसाब निकाला जाए तो 20 लाख करोड़ का 90 प्रतिशत घोटालों में जा रहा है और मात्रा 2 लाख करोड़ का विकास हो रहा . और बचा हुआ 2 लाख करोड़ रुपया 6.5 लाख  गाँव के विकास के लिए आटे  में जीरे के बराबर है कोई विकास नहीं  हो सकता है उससे. इससे ना सड़क बनाई जा सकती है ना पीने के पानी की व्यस्था, स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था. इसलिए गाँव में कोई विकास का काम नहिएं हो पा रहा है; ये लूटा हुआ सारा पैसा विदेशों में जा रहा है. ऐसी स्थिति और परिस्थिति मैं क्या करना चाहिए? इसलिए हम लोगों ने ये संकल्प लिया की ज़्यादा दिन इस लूट की व्यवस्था को हम बर्दास्त नही करसकते. और अगर ऐसे ही ये लूट की व्यवस्था चली रही तो देश की हालत और भी खराब हो जाएगी. जिस देश को शहीदों ने बड़ी कुर्वानी  देकर बड़ी मुश्किलों से आज़ाद करवाया वो फिर  से काले अँग्रेज़ों के हाथों वारबाद हो जाए इससे पहले हम कुछ  करें.और इसीलिए हमने ये  भारत  स्वाभिमान नाम का अभियान शुरू किया जिसका उद्देश्य  है इस लूट की व्यवस्था को ख़तम करना. आप बोलेंगे हम क्या करना चाहते हैं ? इस भारत स्वाभिमान अभियान के मध्यम से कुछ  काम  हम करना चाहते हैं. उनमें सबसे पहला काम जो हम करना चाहते हैं वो ये की अँग्रेज़ों के द्वारा टेक्स लगाकर जिस तरह से भारत के पैसों को लूटा गया उसी तरह आज काले अँग्रेज़ों के द्वारा देश लूटा जा रहा है; इस लूट के पैसे को भारत में लाना है ये इस अभियान का पहला कार्य  है, पहला उद्देश्य है और पहली सफलता के लिये  हम कदम रख रहें है.

अँग्रेज़ों ने इस देश को लूटा आप जानते  हैं; कितना लूटा इस देश को अँग्रेज़ो ने  एक उदाहरण दे के बात समझाता हूँ. राबर्ट  क्लाइव नाम का एक अंग्रेज इस देश में आया. सन 1757 में उसने प्लासी का युद्ध लड़ा. प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला  के सामने वो लड़ रहा था. उस उद्ध में राबर्ट क्लाइव के 350 सैनिक औरसिराजुद्दौला के 18,000 सैनिकों के बीच युद्ध हुआ. 350 सैनिक 18000 सैनिकों से कैसे लड़ सकते हैं? और कितनी देर लड़ सकते हैं आपको अंदाज़ा हो सकता है. तो राबर्ट क्लाइव ने एक चालाकी खेली और अपने एक एजेंट को सिराजुद्दौला की सेना में भेजा, और कहा की पता लगाओ की कौन कौन भारत देश से गद्दारी का सकता है और अँग्रेज़ों से मिल सकता है.सिराजुद्दौला की सेना में एक आदमी निकला जिसका नाम था मीर जाफ़र. उसने गद्दारी करने का फ़ैसला किया और अँग्रेज़ों से मिल गया. उसने ये समझौता किया वो 18000 सैनिकों के साथ अँग्रेज़ों के सामने आत्मसमर्पण करेगा और अँग्रेज़ों की मदद करेगा. प्लासी के मैदान में 23 जून 1757 को यही हुआ. भारत सेना के गद्दार मीरज़ाफर ने अँग्रेज़ों से युद्ध नही लड़ा बल्कि आत्मसमर्पण कर दिया. अँग्रेज़ों ने 18000 सैनिकों को बनदी बना लिया. बंदी ;बनाकर उसने धीरे धीरे सैनिकों के हत्या की. थोड़े दिन बाद मीरज़ाफर को बंगाल का राजा बना दिया. फिर अँग्रेज़ों ने कहा की मीरज़ाफर तो ख़तरनाक है; जो अपने देश से गद्दारी कर सकता है वो अँग्रेज़ों से भी करेगा. और एक दिन अँग्रेज़ों ने मीरज़ाफर की भी हत्या करदी और राबर्ट क्लाइव बंगाल का राजा बन गया.

 

राबर्ट क्लाइव ने एक डायरी लिखी. उसमें उसने लिखा  कि जब बो मीयर जाफ़र को  समझौता करके गद्दारी करने  के लिए प्रेरित किया और  वो जब तैयार हो गया तो मुझे बड़ी हैरानी हुई ये देखकर  कि भारत में ऐसे भी लोग हैं.  फिर  उसने लिखा  कि  मुझे दूसरी बड़ी हैरानी तब हुई जब 18000 सैनिक मेरे कब्ज़े में आए और  मैने कलकत्ता से लेकर मुर्शिदाबाद तक जुलूस निकाला. मैं घोड़े पर बैठ कर आगे  चलता था और 18000 सैनिक मेरे पीछे  चलते थे और सड़क के दोनों तरफ हज़ारों के तादात में लोग तालियाँ बजा रहे थे. वो आगे लिखता है  कि अगर भारत वासी ताली नहिएं बजाते और पत्थर के टुकड़े उठाकर ही हम पर हमला करते तो भारत का इतिहास उसी दिन पलट जाता. लेकिन हम वो नहिएं कर  पाए और हमारा इतिहास उल्टा होग या. हमें अँग्रेज़ों का गुलाम बनाना  पड़ा. उसके बाद राबर्ट क्लाइव ने इस देश को जी भर कर लूटा. लूट का धन सात साल में इंग्लेंड ले कर गया. ब्रिटन के संसद में उसका बयान हुआ और पूछा की तुम भारत से कितना धन लूट कर लाए हो? तो राबर्ट क्लाइव ने कहा की जो कुछ  में ले कर आया हूँ उसका मूल्य तो मैने नहि निकाला लेकिन अंदाज़ा बता सकता हूँ. में भारत से जो धन लेकर आया हूँ उसे लाने के लिए मुझे पानी के 900 जहाज़ लगे. उस जमाने में एक जहाज़ में 60 से 70 टन माल आता था. 900 पानी के जहाज  वो सोने के सिक्के , हीरे , मोती  , पन्ना आदि लूट कर ले गया. राबर्ट क्लाइव इस देश को लूटने वाला अकेला लुटेरा नहीं  था. उसके पीछे वारेन हेटिगस , कार्जन , केनीग , लारेंस , दालहौजी, विलयम वेंटिग से लेकर माउंट वेतन तक   84 अंग्रेज गवेर्नारों ने इतना इस देश को लूटा,  कि भिखारी और कंगाल बना दिया. उस लूट का हिसाब मेने निकाला तो ये लूट लगभग 300 लाख करोड़ रुपये है. अगर हम इतने  पैसे का सोना खरीद लें तो भारत की सड़कों पर सोने के परतें चढ़ाई जा  सकती हैं.

 

 होना ये चाहिए था की अंग्रेज जितना धन भारत से लेकर गये हैं उसे वापस लाना चाहिए था. और व्याज सहित वापस लाना चाहिए. क्यों की वो धन भारत के राष्ट्रीय  संपत्ति है ना की अँग्रेज़ों की संपत्ति.  आप बोलेंगे इसकी क्या व्यवस्था है? एक अंतरराष्ट्रिय अदालत चलती है दुनियाँ में वहाँ मुक़दमा  कर सकते हैं. और अपने पक्ष के सबूत पेश करके अपने  पैसे वापस ले सकते हैं. और भारत स्वाभिमान की तरफ से हम ये मानते हैं की आज नहीं  तो आनेवाले वक्त मैं हम ये पैसा वापस ज़रूर लाएँगे.  नेताओं ने 62 साल जो इस देश में नहीं किया वो काम हम इस देश में करवाएँगे. हम इस मुक़दमें को दायर करेंगे. आप बोलेंगे हमारे नेताओं ने क्यो नहीं ये मुक़दमा किया? ज़्यादातर नेताओं के विचार ऐसे है की अँग्रेज़ों से दुश्मनी  नहीं करना, लड़ाई नहीं करना, अगर वो लूट ले गये तो लूट ले गये हम फिर से अपने देश को बनाने की  कोशिश करते हैं. इस मान्यता के नेता ज़्यादा हुए, डरपोक, कायर, नपुंसक , कमजोर. जो नेता अपने हक के लिए नहीं लड़ सकते अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकते वो नपुंसक नेताओं का ही प्रतीक हैं. हमारी हज़ारों वर्ग मील ज़मीन दुश्मन के कब्जी में चली गयी और हमारे देश के नेता उसे वापस नहीं ला सके. आप जानते हैं कैलाश मानसरोवर हमारा है लेकिन चीन के कब्ज़े मैं है. हमारी 72000 वर्ग मील ज़मीन चीन के कब्ज़े मैं हैं. हमारी 65000 वर्ग मील ज़मीन पाकिस्तान के कब्ज़े में है. इतना लूटा है भारत की पैसे तो दिए ही विदेशियों को, ज़मीने भी दे रखीं हैं. संसद में ती न - चार बार बड़ी बहस हुई है. की हमारी लूटी हुई ज़मीन हम वापस कब लाएँगे? कब ऐसे मजबूत नेताओं की सरकार बनाएँगे जो हमारी लूटी हुई ज़मीन और दौलत वापस लाएँगे.

 

एक बार हमारी संसद में बहस हुई थी , नेहरू ने जबाब दिया था. जो ज़मीन लुट गयी वो  लुट गयी उसको वापस लाने का क्या फ़ायदा? क्यों की उस ज़मीन पर घास का एक तिनका भी नहीं  उगाता है, वो बंजर है बेकार है. हमारे देश में एक  सां सद हुए थे जिन्होने नेहरू जी से सवाल पूछ  लिया था, जिसका जबाब उनके पास नहीं था. उन्होने कहा की नेहरू जी अगर उस ज़मीन पर घास का तिनका नहीं उगाता है वो बंजर ओए बेकार है इसलिए आपने विदेशियों को देदी  है तो आपके सिर पर तो एक बाल  नहीं  उगाता है तो इसे भी काट के विदेशियों को देदो .  नेहरू जी के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा  नहीं था. ऐसी कमज़ोरी हमारे नेताओं में है. इस कमज़ोरी को ख़तम करना ही पड़ेगा. अब ऐसे नेताओं के ज़रूरत है इस देश मैं जो अग्रेज़ों से इस लूट का हिसाब माँग सके.  आप कहेंगे अँग्रेज़ों ने अगर हाथ खड़े कर दि ए की हम तो दे नहिएं सकते 300 लाख करोड़. तो अपने पास दूसरे तरीके हैं.  भारत में जितनी अँग्रेज़ी कंपनियाँ व्यापार करे रहीं हैं इन सबकी संपत्तियों को हम एक झटके में जब्त करेंगे और उसमें से अपने पैसे निकाल लेंगे. इसमें मुश्किल क्या है? आपको मालूम है बहुत सारी कंपनियाँ अँग्रेज़ों की है. ब्रुक बॉन्ड अँग्रेज़ों की कंपनी है, लिपटन और यूनिलीवर जैसी बहुत सारी कंपनियाँ इस देश में अँग्रेज़ों की है. अँग्रेज़ों की कंपनियों को ही जब्त करेके हम अपनी संपत्ति निकाल सकते हैं, इंग्लेंड दीवालिय़ा  होता है तो हो . इसके लिए हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए, स्वाभिमान और देशाभिमान चाहिए ऐसे नेताओं की अब इस देश को ज़रूरत है. और भारत स्वाभिमान अभियान हमने ऐसे ही नेताओं को जनम देने के लिए पैदा किया है.  ऐसे ही नेताओं को एक मंच देने के लिए पैदा किया है. ये हम करेंगे और इस धन  को हम वापस लाएँगे. आज़ादी के 62 वर्षों में इन काले अँग्रेज़ों ने जो धन लूट कर विदेशों में जमा किया है उसको भी बापस लाएँगे.

 

आपको मालूम है हमारे नेताओं और अधिकारोयोँ का विदेशों में 1500 अरब डॉलर ज़मा है. इसका अर्थ है 75 लाख करोड़ रुपये जमा है, और स्विस बॅंक के अलावा दूसरे बेंकों में 35 लाख करोड़ ज़मा है. ये जो 110 लाख करोड़ रुपये जमा कर रखा है इसको भी हम बापस लाना चाहते हैं. आप बोलेंगे कैसे आएगा ? तो इसको वापस लाने के चार रास्ते हैं. पहला रास्ता है की हम संसद की मदद से इस देश में एक क़ानून बनाया जाय , इस क़ानून में ये प्रबंध  किया जाय के 15 अगस्त 1947 के बाद से जितना धन विदेशी बेंकोंमें जमा हुआ है वो भारत केराष्ट्रीय  संपत्ति है. इसके लिए एक प्रस्ताव संसद में लाने की ज़रूरत है.  जिस दिन ये प्रस्ताव संसद में आएगा उस पर वहस होगी. बहस के दिन आप भी देखना और मैं भी देखूँगा के कौन कौन नेता इसका विरोध कर रहा है. जो विरोध करेगा वही भ्रष्टाचारी है उसी का पैसा स्विस बॅंक में है.  सारे देश के सामे ये बात साफ हो जाएगी की कौन बेईमान है और कौन ईमानदार है. और हमने एक दूसरा संकल्प लिया है की जो-जो एम पी इसका विरोध करेंगे उनको छोड़ेंगे  नही  हम उनके घर तक. हम क्या करने वाले हैं ? हम उनके चुनाव क्षेत्र में जाएँगे. परम पूज्य स्वामी जी खुद जाने को तैयार  हैं. और उनके लोगों के सामने बताएँगे की कितना लूटा हैं इस देश को.   वीस साल पहले क्या थे?   आज इनके पास कितनी संपत्ति  है।  उसका पूरा हिसाब  लोगों को बताएँगे.  और लोगों को बताएँगे की आप जो सज़ा तय करो वो सज़ा इनको मिले. हमने एक सज़ा उनके लिए सोची है भारत स्वाभिमान की तरफ से. बिजली के तारों से उनको उल्टा लटकाएँगे; नीचे से आग लगाएँगे और मिर्ची  डालेंगे. तब ये नेता सच कबूलेंगे  और सच बोलेंगे. इन्होने भारत  माता को लूटा हैं हम इनको छोड़ेंगे नहीं . हमने माधो सिंह मोहर सिंह  को नहीं छोड़ा  जिन्होने थोड़े से लोगों को लूटा था. जिन्होने पूरी  भारत माता को लूटा हैं उन्हें तो किसी भी तरह नहिएं छोड़ेंगे. वो हमें हिसाब करना है और न्याय करना है.  ये धन आएगा और संसद के प्रस्ताव से आएगा . आप कहेंगे अगर उन्होने क़ानून बनाने से  माना कर दिया तो. तो हमारी तैयारी है इस पूरी  संसद को बदलेंगे. पूरी संसद नयी बनाएँगे; वर्तमान में जि तने सांसद हैं उन सबकी जगह नये सांसदों को चुनवा कर लाएँगे. काँसे कम 350 से 400 सांसद भारत स्वाभिमान के आशीर्वाद से चुन कर आयेगे. और वो इस देश की संसद  में नया क़ानून बनाएँगे. और स्विस से पैसा वापस लाएँगे. हमारी तैयारी उतनी हैं. 

 

दूसरा रास्ता है सुप्रीम कोर्ट जिसकी मदद से हम ये पैसा ला सकते है. आपको मालूम है इस देश में एक बार यूरिया घोटाला हुआ था. नरसिम्हा राव  उस बक्ट इस देश के प्रधान मंत्री थे 133 करोड़ की रिश्वत दी  गयी थी और एक दाना इस देश में नहीं आया था. सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जाँच करवाई और बाद में पता चला कि  ये पैसा नरसिम्हा राव के वे टे के कंपनी के खाते में जमा किया गया स्विस बॅंक में.  सुप्रीम कोर्ट के आदेश र नरसिम्हा राव के बेटे की गिरफ्तारी हुई और उसको तिहाड़ जेल भेजा गया. और अभी भी वो जेल में ही है. नरसिम्हा  राव तो इस दुनियाँ में नही  है पर उनका बेटा जेल में है. सुप्रीम कोर्ट ने दूसरा आदेश दिया की ये पैसा किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नही  है ये राष्ट्र की संपत्ति है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश  पर ये पैसा देश में वापस आया. हम सुप्रीम कोर्ट में एक ही अपील करना चाहते हैं की अगर यूरिया घोटाले का पैसा आ सकता है तो चारा घोटाले का पैसा भी आ सकता  है और बाकी सारे घोटालाओं का पैसा भी बापस आ सकता है. और शायद सुप्रीम कोर्ट हमरी बात सुने. चौथा  एक रास्ता हैं हमारे पास . अंतरराष्ट्रिय अदालत में हम स्विट्ज़ारलेंड के खिलाफ हम मुक़दमा कर सकते हैं. और स्विट्ज़रलेंड़ अपराधी है,  तुरंत  ये फ़ैसला हमरे पक्ष में आएगा. अगर हम मुक़दमा करेंगे तो 50 देश हमारे साथ मुक़दमा करने को तैयार हैं. क्यों की उन सभी भ्रष्ट नेताओं का पैसा स्विस बेंक में है. वहाँ से भी ये पैसा ला सकते है. और आखरी एक रास्ता है, हम चाहें तो दादगीरी करके भी ये पैसा स्विट्ज़रलेंड से बापस ला सकते हैं. है कितना बड़ा देश; स्विट्ज़रलेंड अपने यहाँ के एक जिले के बराबर का देश है. दो घंटे की का र चलाओ तो स्विट्ज़ारलेंड  की सीमा ख़तम हो जाती है, इतना छोटा सा देश है. मुझे कभी कभी हसी आती है की अगर सारे भारत वासी  एक साथ खड़े हो कर पेशाब भी करदें तो स्विट्ज़रलेंड बह जाएगा. उस देश की ना कोई अपनी आर्मी है ओर ना एयर  फोर्स ना कोई जल सेना है. हम अपना पैसा उसे धमकी देकर भी ला सकते हैं. और थोड़े दिन पहली अमेरिका ने ऐसा किया. आपको मालूम  है थोड़े दिन पहले अमेरिका में एक राष्ट्रपति आया बराक ओबामा. पहली बार अमेरिका के इतिहास में एक अश्वेत व्यक्ति राष्ट्रपति बना, गोरों के देश में. गोरे लोगों को अमेरिका में वोट है 85 % काले लोगों का अमेरिका में वोट है 15 %. फिर भी एक अश्वेत व्यक्ति राष्ट्रपति बना; जानते है  क्यों? उसने बादा  किया था की अगर मैं राष्ट्रपति बनूगा तो अमेरिका के भ्रष्ट लोगों का जो पैसा विदेशी बेंकों में जमा है उसे बापस लाऊगा. अमेरिका के लोगों ने उसको जिताया और इतिहास बनाया. इतने वोटों से अमेरिका में आज तक कोई नहीं  जीता  था जितने से बराक ओबामा जीता।  जीतने के पहले 15 दिन में ही उसने ये क़ानून बनाया  और स्विस बेंक से 470 अरब डालर की रकम बराक ओबामा बपस लाया. 4490 अमेरिका के लोगों का 470 अरब डालर अमेरिका बापस गया और देश की अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल हुआ. ये काम अगर बराक ओबामा कर सकता है तो भारत क्यों नही  कर सकता. बराक ओबामा 30 करोड़ लोगों के देश का राष्ट्रपति है, हमारे देश में तो 115 करोड़ लोग रहते हैं. बस हमको तलाश है एक दूसरे बराक ओबामा की. और हमें विश्वास है की बहुत जल्दी हमारी इच्छा पूरी हो जाएगी क्योंकि भारत माता ऐसी माता है जो महान सपूतों को जनम देती रही है जो बक्त  बक्त  पर अपना काम करके जाते रहें है. अब फिर कोई ऐसा सपूत इस देश में आएगा और ये काम कर के दि खाएगा. हमें इसका पूरा विश्वास है. हम लाएँगे इस 110 लाख करोड़ रुपये को ;

 

 

ला के क्या करने वाले है इस पैसे का हम?  गाँव का विकास करना चाहतें है, सबसे पहले गाँव में रोज़गार और उद्योगों  की  स्थिति सुधारना चाहतें हैं. भारत के 6 लाख 35 हज़ार 365 गाँव में; एक एक गाँव में 100 100 उद्योग लगाना चाहते हैं. हर एक गाँव में वहीं  पर रोज़गार मिले जिस गाँव में हम रहते  हैं ताकि बाहर ना जाना पड़े , शहर  के तरफ ना भागना  पड़े और झुग्गी झोपड़ियों में जीवन ना विताना पड़े. ऐसी व्यवस्था  हम करना चाहते हैं. हम ने  हिसाब निकाल के देखा की क्या क्या उद्योग गाँव में लग सकते हैं. भारत में लगभग दो लाख गाँव हैं जहाँ कपास पैदा होती है. कपास से चरखा चलाके  सूत  बनाया जा सकता है. उस  सूत से कपड़ा बनाया जा सकता है ये काम दो लाख गाँव  में हो सकता है. और इस तरह से अगर हम एक-एक गाँव में रोज़गार दें तो सूत   बनाकर कपड़ा बनाकर 15  करोड़ लोगों को रोज़गार दिया जा सकता है; बहुत आसानी से।  फिर दूसरा  उद्योग गाँव गाँव में क्या हो सकता है? सरसों गाँव गाँव में पैदा होती है तिलहन गाँव गाँव में होता है . सरसों और तिलहन का तेल  गाँव गाँव में निकाला जा सकता है. और गाँव का तेल  डिब्ब़ा  बंद करके शहरों में बेचा जा सकता है. गाँव में अगर बिजली नहीं है तो भी बेलों  की मदद से कोल्हू  चला कर तेल निकाला जा सकता है. जो हज़ारों साल पहले इस देश में निकलता रहा और लोगों की सेहत  तंदुरुस्त बना ता रहा. अभी हम जो शहरों से खरीद कर  जो तेल लाते हैं उसमें तेल कम और मिलावट ज़्यादा होती है. ऐसा इसलिए है क्यों की सरकार ने बड़ी कंपनियों को ये अधिकार दे रखा है की वो "पामोलीन " तेल मिला कर कोई भी तेल बेच सकते है. पामोलीन  तेल एक ऐसा ख़तरनाक तेल है जो कभी भी शरीर  में पचता नहीं  है वो खून में एकट्ठा होता रहता है और हृदय घात  का कारण बनता है. हम चाहते है की गाँव गाँव ये काम हो और घर घर में सरसों का , तिलहन का , नारियल का तेल बने कोल्हू उसके लिए बने और देश में शुद्ध  तेल का उत्पादन हो. तेल का बाजार इस देश में  56,000 करोड़ रुपये का है. जिससे करोड़ो लोगों को रोज़गार मिल सकता है. भारत में जो जो गाँव में गेहूँ पैदा होता हैं उस उस गाँव में गेहूँ का आटा  बन सकता है. हम गाँव में चक्की चलवा सलते हैं आटा  बनवा सकते है और अच्छे  से पॅक करके शहरों में बेचा जा सकता है. स्वामी जी ने संकल्प लिया है की अगले साल  से 1000 गाँव में आरोग्य  केन्द्र शुरू करें जा रहें है. गाँव में चक्की चलकर बनाया हुआ जो आटा  है उसको पैकेट में भर्वाकार  हम विकवाएँगे और उनको रोज़गार उपलब्ध करवाएँगे. इस देश में 90 हज़ार गाँव में आलू पैदा होता है; जहाँ आलू पैदा होता है वहाँ आलू से चिप्स बन सकता है और  शहरों में  विक  सकता है. हमारे देश में विदेशी कंपनियाँ आकर 400 रुपये किलो चिप्स बेच सकती हैं तो हम 50 रुपये किलो तो बेच ही सकते है. 65 से 70 हज़ार गाँव में टमाटर पैदा होता है; टमाटर की चटनी उन गाँव में बन सकती हैं और शहरों में बिक  सकती है. आचार है , पापड़  है, बड़ी है , मुरब्बा है सब गाँव गाँव में पैदा होकर शहरों में बिक  सकते हैं और 100 से ज़्यादा उद्योग गाँव में लग सकते है. बस ज़रूरत उनके लिए पैसे की है. वो पैसा जब विदेश से आएगा तो गाँव में लगेगा और इस तरह उद्योगों  की  व्यवस्था हम गाँव में खड़ी करने वालें है.  जैसे ही ये उद्योग  लगेगे एक एक उद्योग में 10 लोगों को रोज़गार मिला तो हर गाँव में 1000 लोगों को रोज़गार मिलजाएगा और किसी भी गाँव में 1000 से ज़्यादा परिवार नहीं  होते है.  हमारे सारे  गाँव को रोज़गार हम दे सकते हैं. गाँव में रोज़गार मिलने लगेगे  तो शहरों में से लोग वापस जाने लगेंगे और शहर बेहतर बनेंगे.

 

हमने जो योजना बनाई है कि  दस गाँव के बीच में एक बिजली घर बनायें  एक मेगा वाट  का.  ये काम साढ़े चार करोड़ के खर्चे मैं बनता है. अगर एक लाख जगह विजली घर बनजाय तो साढे चार लाख करोड़ की लागत आती है  और अपने पास 110 लाख करोड़ की पूंजी है. 24 घंटे हर गाँव में बिजली रहेगी जैसे कुछ  शहरों में रहती है।  एक मिनट बिजली नहीं  जाएगी. छोटे  पावर स्टेशन लगेंगे तो उसका ज़्यादा फायदा  होता है.  अभी क्या होता है जो पवार स्टेशन  लगते हैं वो 500 और  1000 मेगा वाट  की क्षमता  के होते है; बिजली जब पैदा होती है तब वो 11000 हज़ार वॉल्ट की होती है फिर उसको लाइन में डालने से पहे स्टेप आप करना पड़ता है और बाद में उपयोग के समय स्टेप डाउन  करना पड़ता है. इसमें बहुत सारी बिजली बर्बाद होती है. हम चाहते है की गाँवों के लिए बिजली छोटे  पवार स्टेशन से आए और कारखानों की बिजली बड़े पावर स्टेशन से आए. बड़े पवार स्टेशन कारखानो के लिए चले,छोटे  पावर स्टेशन घरों के लिए चले. बिजली की व्यवस्था में हम यह क्रांतिकारी काम करके इस देश में हर गाँव को जगमगाता हुआ देखना चाहते हैं जैसे शहर जगमगाता है.

 

 हम एस देश के गाँव में लाखों चिकित्सालय  खोलना चाहते हैं अस्पताल, डाक्टर, चिकित्सा  की वयवस्था करना चाहते हैं, सब तरह की सुविधाएँ गाँव में हम देना चाहते हैं,और वो सारी सुविधाएँ  को देने के लिए कुल पैसे की ज़रूरत है पचास लाख करोड़, और हमारे पास है 110 लाख करोड़,पचास लाख करोड़ खर्च करके भी साथ (60) लाख करोड़ बचेगा, उसको भारत माता के नाम से एक किसी बेंक में हम खाता खोल के रख देंगे, फिक्स्ड डेपॉज़िट में रख देंगे.१०  % का ब्याज़ अगर सालाना मिलेगा,तो 6 लाख करोड़ का तो ब्याज़ सालाना आ जाएगा,और उसी से देख का बजट  बन जाएगा. किसी भी नागरिक से टेक्स लेने की ज़रूरत नही पड़ेगी, और हम इ स देश में टॅक्स की वयवस्था को पूरा पलटना चाहते  है. अंग्रेज़ो ने जो टेक्स लगाए थे वो सारे टेक्स हम हटाना चाहताए है, किसी को टेक्स नही देना पड़ेगा जब टेक्स नही देंगे आप तो हर चीज़ सस्ती हो जाएगी.  100 रुपये की चीज़ 30 रुपये में मिलेगी,200 रुपये की चीज़ 60 रुपये में मिलेगी, चीनी सस्ती होगी डीजल सस्ता होगा. एक दिन मैने हिसाब जोड़ा सारे टेक्स ख़तम हो जाए तो 35 रुपये लीटर का डीजल सात रुपये में मिलेगा सारे टेक्स ख़तम हो जाए तो 50 रुपये लीटर का पेट्रोल 12 रुपये लीटर में मिलेगा.  सारे  टेक्स  ख़तम हो जाए तो 350  रुपये  का रसोई गेस का सिलन्रड  45 रुपये में मिलेगा सारे  टेक्स  ख़तम हो जाए एस देश के तो 15 रुपये किलो का नमक 50 पैसे  किलो में मिलेगा. सारे टेक्स ख़तम हो जाए इस देश में तो 90 रुपए किलो की दाल 12-13 रुपय़े  किलो में मिलेगी. सारे  टेक्स  ख़तम हो जाएँ इस देश की  हर चीज़ सस्ती हो जाएगी और ग़रीबों का जिंदगी बिताना आसान हो जाएगा. ऐसी व्यवस्था हम देश में लाना चाह्ते  है. फिर कोई हमें पूछेगा  कोई टेक्स नही लाएँगे तो सरकार कैसे चलेगी. स्विस बेंक से लाए गये पैसे के ब्याज से चलेगी. टेक्स लगाना क्यों?  जिंदगी भर वो पैसा ब्याज देता रहेगा.  हर साल 10% का ब्याज मिलेगा ज़रूरत ही नही.

 

 

 और एक व्यवस्था हम करना चाहतें हैं इस देश में. आज कल पाकिस्तान नाम का देश जाली नोट भिजवाता है . 18 हज़ार करोड़ के हर साल जाली नोट आते हैं.  15% से 20% मुद्रा हामारी जाली नोटों की हो गाइ है.  धीरे-धीरे यह  अर्थव्यवस्था को ख़तम कर सकती है.  तो हम उसका सामाधान ढूँढ रहें हैं, वो क्या की पाकिस्तानी एजेंट जो भारत में आते  हैं जाली नोट ले कर.  वो 1000 और 500 और 100 के नोट ले कर आते है.  जब जब पाकिस्तानी एजेंट पकड़े जाते है तो उनके पास 1000,500,100 के नोट होते हैं.  एक बार एक जाँच  आधिकारी को मैने पूछा कि  ये पाकिस्तानी अजेंटों को आप जब पकड़ते  हो तो  100 500 100 के  नोट जो आते  है तो उनसे पूछो  कि यही नोट लेकर वो क्यों आते है. 50 का नोट क्यों नही लाते 20 के क्यों नही लाते, 10 रूपये  का नोट क्यों नही लाते.  तो एक "सी बी आई"  अधिकारी ने पूछा एक  पाकिस्तानी एजेंट से तो उसने  कहा की साहब 50 रुपए का नोट हम इसलिए नही ला सकते  क्योंकि उसको बनाने में 53 रुपये खर्च हो जाता है, 20 का नोट बनाने  में 25 रुपये खर्च हो जाताए हैं,10 का नोट बनानाए में 15 खर्च हो जाताए है तो वो तो पाकिस्तान के लिए घाटे का सौदा है.  इसलिए 10,20,50 के नोट नहीं  लाते हैं। 1000,500,100 के लाते हैं.  तो हमने  अब ये तय  किया है की इस देश में से 100,500 और 100 के नोट ही ख़तम कर दिए जाएँ. छो टे ही नोट रखे जाएँ. जिन जिन के पास 100,500,और 100 के नोट हैं वो रिजर्व बेंक में जमा करके  उसके बदले में 50-50 के नोट लेकार अपने घर चलाएँ.  फिर हम दे खेंगे की कौन माई का लाल 10 करोड़ की रिश्वत देता है किसी को.  अभी 10 करोड़ की रिश्वत तो एक ब्रीफकेस में आ जाती है 1000-1000 के नोट लेके वो दे आते हैं.  फिर जब 50 का ही नोट रहेगा सबसे बड़ा तो 10 करोड़ की रिसवत ले जानाए के लिए ट्रक भरना पड़ेगा और ट्रक भर काए नोट ले जाके किसी को देना पड़ेगा.  लेने वाले को हम दीखेंगे और देने वाले को दीखेंगे कैसे संभव होता है. भारत के ब्रष्टाचार की पूरी व्यवस्था को ख़तम केरने के लिए छोटे  नोट चलाने है.  पाकिस्तान की जाली मुद्रा के दुष्चक्र  को ख़तम करने के लिए छोटे नोट चलाने हैं और इससे भी ज़्यादा गंभीर बात जो मैं कहना चाहता हूँ वो ये की 84 करोड़ भारतवासी एक दिन में सिर्फ़ 20 रुपये खर्च करते हैं तो उनको तो बीस के ही नोट की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. अब 84 करोड़ तो हमारी आबादी का 70 प्रतशात है. 70 प्रतशात आबादी जिसको खर्च करती है वो ही नोट ज़्यादा चलना चाहिए. बड़े नोट सब ख़तम होने चाहिए.

 

 

 

"क्रिमिनल प्रॉसीजर कोड"," इंडियन एजुकशन एक्ट " जैसे   सब क़ानून हम ख़तम करना चाहते है. और उनके स्थान  पर ज़रूरत पड़ने पर हम न ए क़ानून बनाना चाहते हैं. हम भारत के व्यवस्था को न्याय आधारित बनाना चाहते है, क़ानून आधारित हम नहीं  बनाना चाहते हैं. एक ही उदाहरण  से बात आपको समझ में आजाएगी. एक राजा था इस देश में उसका नाम था चंद्र गुप्त विक्रमादित्य बड़ा न्याय प्रिय राजा था. उसके दरबार में एक बार दो माताएँ आई; एक बच्चे के साथ. दोनो ही ये कह रही थी के ये उनका बच्चा है. राजा ने कहा तलवार लाओ और बच्चे को आधा-आधा काट दो. जैसे राजा ने तलवार उठाई तो एक माँ  कहने लगी की वच्चे को  मत काटो उसे दूसरी मां  को दे दो  कम से कम ज़िंदा तो रहेगा. राजा समझ गया असली माँ  यही है जो वच्चे को कटता हुआ नही देख सकती. राजा ने नकली माँ  से बच्चा छीन  कर असली माँ  को दे दिया और पूरे  मुक़देमे  का फ़ैसला दो पल में हो गया. ऐसी न्याय व्य वस्था हम इस देश में लाना चाहते हैं. यही मुक़दमा आप आज के क़ानून "सी. पी. सी", "सी. आर. पी. सी." में ले आइए में चुनौती देता हूँ की पचास साल में भी इस मुक़दमें का फ़ैसला नहीं  ही सकेगा. दोनो माताएँ बूढ़ी होकर मर जाएँगी बच्चा भी बड़ा हो कर बूढ़ा  हो जाएगा. लेकिन मुक़दमा ख़तम नहीं  होगा वो चलता ही जाएगा. ऐसा इस लिए क्यों की ये क़ानून न्याय देने के लिए बने ही नहीं  है. हम न्याय की व्यवस्था चाहते हैं. न्याय व्यवस्था को हम स्वदेशी करना चाहते है. इसी तरह शिक्षा व्यवस्था को हम स्वदेशी करना चाहते है.

 

 अभी हम जो शिक्षा लेते हैं वो मैंकाले की है. दुर्भाग्या से मैकाले जो पाठ्यक्रम हम को देगया वो इतना घटिया और रद्दी है कि  जिंदगी मैं कभी काम नहीं  आता. हम पढ़ते हैं, रटते है और कक्षा में जाकर उल्टी कर आते हैं. 100 में से 96 और 98 नंबर  लाकर हम क्या करें. ये शिक्षा कभी जिंदगी में काम नहीं  आती. में अपना उदाहरण देता हूँ. सालों साल में पढ़ाई की अपनी जिंदगी बर्बाद की. में नहीं पढ़ता तो बहुत अच्छा होता. मैं ने  जितने साल पढ़ाई की और जितना पैसा मेरे माँ  बाप ने खर्च किया, जितना पैसा मेरे माँ  बाप ने मेरे ट्यूशन पर मेरे खर्च किया. अगर में पढ़ने नहीं  जाता तो वो पैसा  वचता. मैं उससे कोई धंधा और व्यापार करता तो करोड़पति होता. क्या पढ़ाई हुई है मेरी.  मैने बचपन में पढ़ा है (अ +ब)२ =अ 2+2+२अब  (जे-य)2=2+2-२अब . अब मुझे ये समझ में नहीं  आता की इस शिक्षा का मेरे जीवन में का उपयोग है. मेरे शिक्षक ने मुझे पढ़ाया घंटो-घंटो मैंने ने रट़ा  और अभ्यास किया ना जाने कितने किलो कागज मेने बर्बाद किया फिर भी मुझे नहीं  पता में उस ज्ञान से क्या करूँ. मेने अपने शिक्षक से पूछा आपने मुझे ये क्यों पढ़ाया मेरे जिंदगी में तो ये कामनहीं आया.  तो मेरे गणित के अद्यापक द् ने जबाब दिया की काम तो मेरे भी नही आया, मुझे भी किसी ने पढ़या था मेने तुम्हें पढ़ा दिया.  अब अगर इस ज्ञान  का कोई उपयोग नहीं है तो फिर ये भेड  चाल किसलिए है. जो  काम नही आता है उसको पढ़ना ही क्यों. बचपन में मुझे पढ़ाया गया की अमरीका का पहला राष्ट्रपति कौन था. मुझे मालूम है की पहला राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन था पर मैं करूँ क्या . मैं सब्जी खरीदने बाजार जाता हूँ और बोलता हूँ की अमेरका का पहला राष्ट्रपति जाज वाशिंगटन था क्या वो मुझे सब्जी देगा? फालतू में रटा  रटा  कर मेरा दिमाग़ खराब कर दिया. मुझे नही मालूम की हमारे कुल का पहला इंसान कौन था लेकिन अमेरिका का पहला राष्ट्रपाति मालूम है. मुझे तो इतना दुख होता है कि  उनका पहला ही नहीं  250 राष्ट्रपति भी मालूम  हैं मुझे, और अपने कुल के ढाई आदमी के नाम नही मालूम मुझे. अपने दादा के  पहले की पीढ़ी के नाम मुझे नहिएं मालूम  क्या करना है ऐसी शिक्षा से. इसका उपयोग क्या है. बचपन में मैं मुझे पढ़ाया  की कनाडा की जलवायु कैसी है. मुझे कभी कनाडा जान नहीं  है और नही कभी कनाडा मेरे घर आएगा. तो फिर उसकी जलवायु पढ़कर मुझे क्या हासिल होगा. अगर में शिवपुरी में रहता हूँ और वहाँ की जावायु पढ़ूँ तो मुझे काम आएगी, कनाडा की जलवायु क्या काम आएगी. अगर में भविष्य में कभी कनाडा गया जिसकी की दूर दूर  तक कोई संभावना नही  है;  तब उसका कुच्छ उपयोग हो सकता है. उसके लिए पढ़ और रट  रट के दिमाग़ खराब करने की कोई ज़रूरत नहिएं है.

 

इतिहास की वात करे तो पढ़ते है; अकबर बड़ा महान था; तो  मैं क्या करूँ ?मेरी जिंदगी में उससे मुझे क्या फायदा  होगा.आप अपने बारे में ईमानदारी से सोचो आपने जो पढ़ा है उसमें से कितना आपके काम आया. शायद आप 100 का नंबर निकालेंगे तो 5 भी काम नहीं  आया.जो काम नहीं आया फिर उसको पढ़ा क्यों.  आप दूसरी तरीके से उल्टा सोचो , जितना पढ़ा है उसका कितना याद है. याद उतना ही रहता है जिसे दिमाग़ इस्तेमाल करता है; बाकी कचरे को दिमाग़ वैसे ही निकाल के फेंक देता है.  जो याद ही ना रहे उसे पढ़ना और पढ़ना क्यों. इसलिए ये व्यवस्था बदलना बहुत ज़रूरी है. हमारे बच्चों के उपर इतना बोझा हो गया है की  इसने बच्चो के जीवन को ख़तम सा कर दिया है. कभी कभी मुझे इतना अफ़सोस होता है सुनकर  की 12 वी का परिणाम आया और उससे दुखी होकर जब बच्चे आत्म हत्या करलेते  हैं; सिर्फ़ असफल होने से या कम अंक आने से। .

 

 मैं तो मानता हूँ की बच्चे असफल नहीं  होते परीक्षा के पद्यति  असफल हुई है. बच्चों के बारे में सारी दुनिया कहती है की वो तो कच्ची मिट्टी के घड़े जैसे होते हैं जैसा चाहो ढाल सकते हो. हमारी बच्चे को अध्यापक और शिक्षा पद्यति कुछ  नही दे सके तो इस में दोष किसका है. मुझे तो लगता ऐसे अध्यापकों को असफल होना चाहिए. क्या मज़ाक है  इस पद्यति मैं 100 में से 90 नंबर , 95 नंबर लाओ तो आप बहुत होशियार हैं  30 , 35 नंबर लाने बाले  को बिल्कुल बेकार समझा जाता है. न्यूटन को तो कभी तीस से ज़्यादा नंबर नहिएं मिले उसे तो स्कूल ने निकल दिया था बेकार मानकर।  स्कूल से जाने के बाद उसका दिमाग़ खुल गया, उसने गिरते हुए सेब के फल को देखा और गुरुत्वा कर्षण का सिद्धांत  दिया. जो आदमी स्कूल में फेल हो गया था आज बड़े बड़े विद्यार्थी उसके उपर शोध करते हैं. इसका सीधा सा मतलब है किसी के स्कूल में  असफल या सफल होने से जीवन में सफलता और असफलता का कोई संबंध नहीं  है. आप अगर आइंस्टाइन की कहानी पढ़ोगे तो आइंस्टाइन तो भी 9 कक्षा के आयेज पढ़ नहीं  पाया कभी. स्कूल ने उसको निकल दिया. उसीआइंस्टाइन  ने सारी दुनिया को उर्जा और द्रव्यमान के संबंध को स्थापित किया जिसे हम E=MC2  के समीकरण के रूप में जानते है. और दुनिया एक ऐसे आदमी को पूजती है जो 9 कक्षा के आगे  नहीं पढ़ा. 

 

में तो इसी देश की ऐसे बहुत सारी कहानिया जानता हूँ जो इस बात को बार बार  प्रतिपादित करती हैं की स्कूली शिखा में 9, 10 या 16 पास करने से कुछ नहीं होता. धीरू भाई  अंबानी  जो 9 क्लास फैल था कभी पेट्रोल पंप पर नौकरी करता था 4.5 लाख करोड़ का रिलायंस का कारोबारी साम्राज्या खड़ा करे छोड़  गया. इसका अर्थ यही है ज्ञान और योग्यता का डिग्री से कोई संबंध नहीं है. घन श्याम दास बिरला सिर्फ़ कक्षा 4 पास, स्कूल और गाँव छोड़ कर निकल गये लोटा लेकर मुंबई पहुँच गये; और इतना बड़ा बिरला का कारोबारी साम्राज्य खड़ा कर दिया. जो आज लाखों करोड़ का है; कक्षा 4 पास आदमी ने क्या है. बिरला जी कहा करते थे की कक्षा पास करना कोई महत्व की बात नहीं  है जीवन की तुलना में, हम जीवन को जीने वाली शिक्षा हम अपने विद्यार्थियों को दे. ऐसी शिक्षा व्यवस्था हम बनाएँ जिसमें उपाधि  का महत्व ना हो ज्ञान  का महत्व हो; परीक्षा का महत्व ना हो सीखने का महत्व हो; पढाने  का महत्व न हो सिखाने  का महत्व हो; अध्यापक भी सीखें और विद्यार्थी  भी सीखें; दोनो सीखने  की पक्रिया में आगे  बढ़े.ऐसी शिक्षा व्यवस्था हम बनाना चाहते हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था मात्रा भाषा पर आधारित होगी अँग्रेज़ी पर नहीं . अंग्रेज आए थे तो अँग्रेज़ी आई थी, अंग्रेज गये थे तो अँग्रेज़ी भी चली जानी चाहिए थी. क्यों रख ली हमने? हम अपने बच्चों को अँग्रेज़ी में पढाते है और मार मार के पढाते है सिखाते  है. भारत का बच्चा गंणित में पास हो जाता है,भौतिकी मैं पास हो जाते है,रसायन में पास हो जाते हैं लेकिन अँग्रेज़ी में फैल हो जाता है. होना ही चाहिए उनको फैल क्योंकि अँग्रेज़ी विदेशी भाषा है. आप मुझे एक अंग्रेज दिखाइए जो हिन्दी में पास हो जाय तो में अँग्रेज़ी मैं पास हो सकता हूँ. जब कोई अंग्रेज हिन्दी में पास नही हो सकता है तो हम भारतीय  से अपेक्षा क्यों करते हैं की वो अँग्रेज़ी में पास हो जाएँ.

अँग्रेज़ी भाषा ही नहीं  है पास होने लायक ये तो एक दम रद्दी है . इस भाषा का जब मैने इतिहास पढ़ा तो पता चला की पाँचवी शताब्दी में तो ये भाषा आई इसका मतलब है की मुश्किल से 1500 साल पुरानी है. हमारी भाषा तो करोड़ों वर्ष पुरानी है संस्कृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़,मलयालम. दुनिया की सबसे रद्दी भाषा है अँग्रेज़ी इसकी कोई अपनी व्याकरण नहीं  है जो सूद्ढ़ हो और अपनी हो. आपको एक उदाहरण देता हूँ. अँग्रेज़ी में एक शब्द है "PUT" इस का उच्चारण होता है पुट दूसरा शब्द है "BUT" इसका उच्चारण है बट  इसी तरह "CUT " को कट बोला जाता है जबकि तीनों शब्द एक समान हैं. इसकी बजह है  भाषा के व्याकरण का ना होना. इसी तरह कभी "CH" का उच्चारण "का" होता है तो कभी "च"  कोई नियम नहीं  चलता है. इस भाषा के कितनी बड़ी कमज़ोरी है; अँग्रेज़ी में एक शब्द होता है "SUN"  जिसका मतलब होता है सूरज.  में सारे अँग्रेज़ों को चुनौती देता हूँ की सूरज का दूसरा शब्द अँग्रेज़ी में से ढूँढ कर दिखाए यानी की "SUN" का पर्यायवाची; पूरी  अँग्रेज़ी में दूसरा शब्द नही  है जो सूरज को बता सके. अब हम संस्कृत की बात करें "सूर्य" एक शब्द  है इसके अलावा दिनकर , दिवाकर, भास्कर 84 शब्द हैं संकृत में. इसी तरह एक शब्द हैं "MOON" अँग्रेज़ी मैं इसके अलावा कोई शब्द नहीं  है; संकृत में 56 शब्द है चाँद के लिये . इसी तरह पानी के लिए भी जहाँ अँग्रेज़ी में एक शब्द  है पानी के लिए "WATER" चाहे वो नदी का हो नाले का या कुए का.संस्कृत में हर पानी के लिए अलग शब्द है, सागर के पानी से लेकर कीचड़ के पानी तक सभी के लिए अलग शब्द  है. कितनी ग़रीब भाषा है शब्द  ही नही है. चाचा भी "अंकल" मौसा भी "अंकल" फूफा भी "अंकल" और फूफा का फूफा भी "अंकल" और मौसा का मौसा भी "अंकल" कोई शब्द ही नहीँ  है अंकल  के अलावा. इसी तरह चाची,मामी,मौसी सभी के लए "आंटी" कोई शब्द ही नहीँ  है इसके अलावा.

 

 

 हम तो मूर्ख हैं जो इस अँग्रेज़ी के चक्कर में फस गये. असल में अकल उन्ही  की  मारी गयी है जो अँग्रेज़ी सीख गये हैं. जिन्होने नहीं  सीखी वो ठीक है. पता हैं में कुछ  लोगों के घरो में जाता हूँ. मेरा एक प्रण हैं की में होटल में रुकूंगा नहीं और घर में ही खाना खाऊंगा . इसलिए लोगों को मुझे किसी भी तरह घर में रुकाना पड़ता है और घर में ही खाना खिलाना पड़ता है. कभी-कभी में अँग्रेज़ी पड़े लिखे घरों में भी जाता हूँ. वे  अँग्रेज़ी की बजह से मुझे  कैसे मूर्ख दिखाई देते हैं उसका उदाहरण देता हूँ. वो ना तो अंग्रेज हैं और ना हिन्दुस्तानी वो खिचड़ी हैं.वो खिचड़ी कैसी हैं; किसी  परिवार में गया, बाप का नाम रामदयाल माँ   का नाम गायत्री देवी बेटे का नाम "टिनकू". रामदयाल और गायत्री देवी का येटिनकू कहा से आगया. जब में उन से पूछता हूँ की आपको टिनकू का मतलब पता है तो उनको नहीं पता होता है. ऐसे मूर्ख लोग है अर्थ मालूम नही नाम रख लिया टिनकू. फिर में उनको  अँग्रेज़ी शब्द कोष दिखता हूँ, अँग्रेज़ी की सबसे पुराना शब्दकोष है वेबस्टेर;  जिसमें टिनकू का अर्थ होता है "आवारा लड़का". जो लड़का माँ  बाप की ना सुने वो टिंकू।   और हम, पढ़े लिखे मूर्ख लोग क्या कर रहें है, अच्छे ख़ासे आज्ञाकारी  पुत्र को दिन भर आवारा बुलाते रहते हैं  इस अग्रेज़ी के चक्कर में. अंगेजी पढ़े लिखे घरों में डिंपल,बबली,डब्ली,पपपी, बबलू,डब्लू जैसे बेतुके और अर्थहीन  नाम ही मिलते हैं. भारत में नामों की कमी होगई है क्या?  कभी कभी में इससे भी बड़ी मूर्खताएँ में देखता हूँ . कभी किसी अधकचरे हिन्दुस्तानी के घर में जाऊं तो  रोब झाड़ने के लिए अँग्रेज़ी बोलते हैं चाहे ग़लत ही क्यों ना बोले. बो चाहे तो हिन्दी में भी बोल सकता है लेकिन रोब झाड़ने के लिए अँग्रेज़ी मैं ही बोलेगा।   वो वोलेगा "ओ राजीव दीक्षित जी  she is my misses " तो मैं पूछता हूँ " really" ! she is your misses ?". क्यों की उसको "मिसेज़" का अर्थ नहीं  मालूम। .

मिसस का अर्थ क्या है ?

 

किसी भी सभ्यता में जो शब्द निकलते उनका अपना सामाजिक इतिहास और अर्थ होता है. इंगलेंड  की सभ्यता का सबसे ख़राब  पहलू ये है  जो आपको कभी पसंद नहिएं आएगा . की वन्हा एक पुरुष और एक स्त्री जीवन भर साथ कभी नहिएं रहते; बदलते रहते है कपड़ों की तरह. मेरे कई दोस्त हैं इंग्लेंड और यूरोप में है उनकी 40 -40 शादियाँ हो चुकी और और 41  वी करने के तैयारी है.  एक पुरुष कई स्त्रियों से संबंध रखता है एक स्त्री कई पुरुषों से संबंध रखती है. तो पत्नी को छोड़ कर पुरुष जितनी स्त्रियों से संबंध रखता है वो सब  "मिसेज़" कहलाती है. इसका मतलब  हुआ कोई भी महिला जो पत्नी नहिएं है और जिसके साथ आप रात को सोएं . अब यहाँ धर्म पत्नी को मिसेज़ बनाने में लगे हैं; मूर्खों के मूर्ख. "मिस्टर" का मतला उल्टा, पति को छोड़ कर पुरुष जिसके साथ आप रात विताएँ। छोड़िए इन अँग्रेज़ी शब्दों को इनमें कोई दम नहिएं है. एक तो सबसे खराब अँग्रेज़ी शब्द है "मेडम" पता नहीं  है लोग बोलते कैसे है. आप जानते है यूरोप में मेडम कौन होता है. ऐसी सभ्यता  में जहाँ पर स्त्री गमन होगा वहां वेश्यावृति  भी होगी. पर स्त्रीगमन पर पुरुषगमन चरम पर होगा . तो वैश्याएँ जो अपने कोठों  को चल़ाती हैं अपनी वेश्यावृति   के धंधे को चलाने के लिए. ऐसी वैश्या प्रमुख को वहां मैडम कहा जात है.हमारे यहाँ ऐसे मूर्ख लोग हैं जो अपनी बहिनों को मैडम कहते है, अपनी पत्नियों को मैडम कहते है. और पत्नियों को भी शर्म नहिएं आती मैडम कलवाने में वो भी कहती हैं मैडम कहो मुझको. पहले जान तो लो इसका मतलब फिर कहलबाओ. अपने भारत में कितने सुंदर सुंदर शब्द हैं जैसे  "श्रीमती " श्री  यानी की लक्ष्मी  मति  यानी बिद्धि  जिसमें लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ निवास करें वो श्रीमती  उसको हमने मिसेज़ बना दिया. देश में   मुर्ख अँग्रेज़ी पढ़े लिखे; इन्होने बड़ा बेड़ा गर्क किया इस देश में बड़ा सत्यानाश किया. पहले तो अँग्रेज़ी भाषा ने किया फिर इन्होने और ज़्यादा किया. मेरा आपसे हाथ जोड़ के निवेदन है इस अँग्रेज़ी भाषा के चक्कर में मत पड़िये  कुछ  रखा नहीं  है इसमें।

 

 

  कभी कभी तो मैं  जब  लोगों के घरों में जाता हूँ  इतना गुस्सा आता है मुझे. इन अँग्रेज़ी पढ़े लोगों के यहाँ  छोटे  छोटे बच्चे होते है उनसे माता पिता कहते हैं "अंकल आए हैं अंकल को पोयम  सुनाओ". मैं  कहता हूँ भाई मैं अंकल नहीं  हूँ. मुझे या तो मामा बना लो या चाचा बनो लो दोनो में ही आपका फ़ायदा  है और मेरे भी फ़ायदा  है. अंकल बनने में तो कुछ  रखा नहीं  है. फिर उनके माता पिता को कहता हूँ आप इनको पोयम  क्यों सुंनबाते हो कविता सुनवाओ ना. तो उनको पोयम  और कविता का अर्थ ही नहीं  पता है. पोयम  अलग है कविता अलग है. और वो बच्चे चालू हो जाते हैं टेप रिकारडर की तरह और पोयम  सुनाते  हैं मुझको।  "रेन  रेन  गो अवे, कम एगेन अनोदर डे, लिटल बेबी वांट्स  टू  प्ले।  " अब में बच्चे से पूछता हूँ तुम्हे मतलब  मालूम है इसका. तो वो कहता है नहीं मालूम. तब में पूछता हूँ किसने सिखाया  वो कहता है मम्मा ने. मम्मा को पूछो तो उसे भी अर्थ नहीं  मालूम उसे टीचर ने बताया. टीचर को पूछो तो उनको भी अर्थ नहीं  मालूम।।  तो रटाया क्यों फिर बच्चों को?  फिर बच्चों को में बताता हूँ इसका अर्थ ये है. "वारिश वारिश तुम चली जाओ मत आओ क्यों की मुझे खेलना है". प्रार्थना के रूप में ये कविता है; करोड़ों बच्चॉ ने अगर  ये कविता गायी और ईश्वर ने सुन ली तो.  वारिश को वापस बुला लिया तो क्या होने वाला है? वारिश नहीं  होगी तो सूखा पड़ेगा. और सूखा पड़ेगा तो आप भी भूकों मरोगे , में भी मारूँगा और किसान भी मरेंगे. इतनी अकल नहीं  है  की "रेन  रेन  गो अवे" कितनी ख़तरनाक चीज़ है. हमारे भारत में 60 प्रतिशत खेती वारिश से होती है; केवल 40 प्रतिशत में ही खेती की व्यवस्था  है. तो हमें तो वारिश ज़्यादा चाहिए. और ऐसी कविता देशी भाषा में ही हो सकती है अँग्रेज़ी में नहीं . मराठी भाषा के एक कविता है अर्थ इसका  बहुत सीधा है. वो कविता है

                            आओ आओ पाऔशा;

                                        टोला दे तो पैसा;

                                                   पैसा झाला खोता;

                                                              पाऔ साला मोटा.

                    ( वारिश वारिश तुम जल्दी जल्दी आओ नहिएं आयोगे तो मैं पैसा देने को तैयार हूँ)

 

मात्रा भाषा की कविता बारिश को बुलाने वाली होती है और अँग्रेज़ी कविता वारिश को भगाने वाली होती है क्योंकि इंग्लेंड में मौसम खराब होता है, वारिश कभी भी हो जाती है. इस लिए वहाँ  की कविता में वारिश से जाने की बात होती है.

 

 अँग्रेज़ी में तीन  "W" होते है जिनका क़ोई  भरोसा नही है. पहला   है "WEATHER" (मौसम) कोई भरोसा नहिएं है कब बरसेगा कब धूप होगी; दूसरा है "WIFE" (पत्नी) आज आपकी है कल छोड  कर जा  सकती है; तीसरा है WORK(काम) आप किसी के यहाँ वीस साल भी नौकरी करें कोई भरोसा नहीं कि   कल भी आप को रखेगा जिस दिन चाहेगा आपको निकाल दे देगा. भारत में ये तीनों ही पक्के है. मौसम एक दम पक्का है कब जाड़ा होगा , कब वारिश होगी कब गर्मी होगी सब पक्का है. और पत्नी तो सबसे ज़्यादा पक्की है सात सात जानम तक साथ नहिएं छोड़ती इतनी पक्की वाईफ तो दुनिया में कहीं नहिएं है. और वर्क यानी  काम भी बहुत पक्का है. फिर हमारी कविताएँ तो हमारे समाज , संस्कृति , देश और शभयता के हिसाब से होनी चाहिए. अँग्रेज़ों के कविताएँ हम क्यों सीखे?  व्यक्तिगत  बात चीत में तो अँग्रेज़ी बिल्कुल मत बोलिए. एक बात और अपने दिमाग़ से निकाल दीजिए की अँग्रेज़ी अंतरराष्ट्रिय भाषा है. अँग्रेज़ी 200 में से  केवल 14 देशों में बोली जाती है. बाकी सब देशों की  अपनी अलग अलग भाषाएँ है जैसी की फ्रांस, रूस, हलेंड, जर्मनी, चीन, जापान . अँग्रेज़ी केवल उन्ही देशों में है जो अँग्रेज़ों के गुलाम थे जैसे की न्यूजीलेंड , कनाडा, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, आस्ट्रेलया, अमेरिका. ये सब अँग्रेज़ों के गुलाम देश थे।  इसलये अँग्रेज़ी यहाँ पर है.  अँग्रेज़ी दुनिया के सबसे  बेकार भाषा है,  अँग्रेज़ी में शब्दों की संख्या सबसे कम और व्याकरण  सबसे मूर्खता वाला है.

 

 संयुक्त राष्ट्रा संघ में भी अँग्रेज़ी नही चलती , वो फ्रेंच में काम करते है.  एक बार मैने पूछा उन लोगों को कि  आप अँग्रेज़ी में काम क्यों नहीं  करते है? तो मुझे बताया गया  की बहुत बेकार भाषा है. फिर  फ्रेंच में ही क्यों काम करते है.  वो कहते हैं बहुत वैज्ञानिक भाषा है. मैने पूछा फ्रेंच के वैज्ञानिकता क्या है? तो उन्होने मुझे इतनी गहरी बात कही. मुझे  बताया की फ्रेंच में शब्द रूप और धातु रूप दोनों अलग अलग हैं. तो मैने पूछा ये कहाँ से आपने सीख लिया?  तो मुझे बताया गया की संस्कृत से क्यों की संकृत में शब्द रूप और धातु रूप अलग अलग हैं.

 

संस्कृत दुनिया की सब  भाषाओं की माँ  है. इसलिए सस्कृत सीखिए दूसरों को सिखाइए. हिन्दी सीखिए सिखाइए और अन्या भारतिय भाषाएँ सीखिए सिखाइए। इस अँग्रेज़ी में कुछ  नहीं  रखा है. फिर आप बोलेंगे दुनिया में व्यापार करना है; तो अँग्रेज़ी चाहिए. विल्कुल नहीं  चाहिए. जर्मनी,  जापान,  होलेंड चीन सारी दुनियाँ में व्यापार करते है अपनी भाषा के मध्यम से; अगर उनका काम चल सकता है तो हमारा भी चल सकता है. संस्कृत और हिन्दी में. अँग्रेज़ी सिर्फ़ उन्हें लोगों को सीखनी चाहिए जो इंग्लेंड जाएँ. जब वीसा मिले तो सीख लेना अभी से सीखने की क्या ज़रूरत है दिमाग़ खराब करना.  और इंग्लेंड जाने का वीज़ा 115 करोड़ को तो नहीं  मिलने वाला है . इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम क्या होता है जब आप मार मार के बच्चे को अँग्रेज़ी सिखाते  है तो 6 गुना समय उसका बर्बाद  होता है. जब वो बात बच्चा अँग्रेज़ी में  6 घंटे मैं सीखता है उसी चीज़ को मात्रा भाषा में 1 घंटे में सीख सकता है. कितना समय बर्बाद किया.

मैने एक बार हिसाब लगाया की अगर सारी पढ़ाई मात्रा भाषा में हो तो अभियांत्रिकी और (इनगिनियारिग) और चिकतसा विज्ञान ( मेडिकल) के पढ़ाई 1.5 से 2 वर्ष में पूरी हो सकती है. इतना समय हम बचा सकते हैं.  पहली से, लेकर 12  कक्षा तक अगर अँग्रेज़ी हटा दी  जाए तो बच्चे को जितना 12 साल में सीखते है उतना 2 साल में सिखाया जा सकता है. समय और पैसा बचा सकते है और जीवन का तनाव कम कर सकते है. इसलिए हम चाहते हैं की पूरी की  पूरी शिक्षण व्यवस्था  मात्रा भाषा में हो  बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक. अँग्रेज़ी का प्रयोग इस देश में ख़तम हो चाहे वो सुप्रीम कोर्ट या हाई  कोर्ट में. सुप्रीम कोर्ट में अगर में मुक़दमा करूँ तो जज को भी हिन्दी  आनी चाहिए. अगर उसको हिन्दी नहीं आती है  तो उसको सुप्रीम कोर्ट में लाने की कोई ज़रूरत नहिएं है.  जो  सिर्फ़ अँग्रेज़ी जानते है ऐसे लोगों को इंग्लेंड भेज दो यहाँ उनकी कोई ज़रूरत नहीं  है. पैसा हिन्दी भाषियों के खून पसीने की कमाई का लेंगे और न्याय अँग्रेज़ी में देंगे ये कौन सी व्यवस्था  है. न्याय भी हिन्दी में ही देना पड़ेगा. जब वादी को हिन्दी आती है, प्रतिवादी को हिन्दी आती है तो जज को भी हिन्दी आनी ही चाहिए. अगर भारत में नहीं  आएगी तो किस देश में आएगी जज को हिन्दी.

 

 न्याय व्यवस्था में हिदी, प्रशशण व्यवस्था मैं हिन्दी, संसद में भी हिन्दी ही होनी चाहिए. मुझे कभी कभी नेताओं पर क्रोध आता है. वोट तो माँगेगे हिन्दी मैं. आपकी भाषा में आप से बात करेंगे गधे  को भी बाप बनाएँगे. संसद में पहुँचते ही अँग्रेज़ी में गिट पिटाना शुरू कर देते है. इस देश में सिर्फ़ 1% लोगों को अँग्रेज़ी आती है 99% को नहीं  आती है. किसके लिए संसद चलाते है? किसको सुनने के लिए बहस अँग्रेज़ी में  करते है. मुझे पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल विहारी बाजपई की एक बात याद आती है. वो कहते थे की संयुक्त  राष्ट्र में हिन्दी बोलना  आसान हैं; भारत की  संसद में हिन्दी बोलना बड़ा कठिन काम है; क्यों  कि संसद में अँग्रेजियत इतनी ज़्यादा हो गयी है. अटल जी ने न्यूयार्क सयुक्त राष्ट्रा में धारा प्रवाह भाषण दिया था. वो कहते है यहाँ  अपनी संसद में झक मारकर अँग्रेज़ी बोलना पड  जाता है. ये शर्मनाक स्थिति बदलनी पड़ेगी हमें.  मात्रा भाषा में हमें सारे काम करने हैं. हमें अपनी जिंदगी मैं कुछ   संकल्प लेने हैं. हम भारत वासी है तो हम भारतीय  भाषाओं में अपने जीवन को चलाएँ. भारतीय  भूषा पहने. मुझे तो कभे कभी बड़ी शर्म लगती है इस देश के लोगों को देखकर की क्या मूर्खता करते हैं लोग. अँग्रेज़ों के जाने के बाद भी उनकी भूषा पकड़ के रखी हुई है टाई,कोट, पैंट और काला कोट. इस देश के बकीलों को देखता हूँ जून की 40 डिग्री के धूप में कला कोट  पहने  और टाई  लगा कर अंधाधुंद  बहस करते हैं. कला कोट पसीने से सफेद हो जाता है पसीने से, जो दूर  से बदबू मारता है. क्या ज़रूरत है इस सब की; इस काले कोट को उतार के फेंक क्यों नही देते. अँग्रेज़ों के जमाने में कला कोट होता था, उनके जाने के बाद तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं  है; हटाओ इसको!

 

 कभी कभी में ऐसे दृश्या देखता हूँ आप भी देखते होंगे. एक बारात जा रही है, बारात में दूल्हे राजा कोट पैन्ट  और टाई लगाकर घोड़े पर वैठे  हुए है, महामूर्ख बनके. शादी बाले दिन इतनी मूर्खता की ज़रूरत क्या है. जून  की गर्मी मैं ससुराल में जाके चिल्लाते हैं ए. सी.  लाओ।  कपड़े उतार के फेकदो  ए. सी. के ररूरत क्या है?   ऐसे दूल्हे राजा को जो तीन न हिस्सों वाला सूट पहन कर आया है ,  अपनी दुल्हन को स्कर्ट में ले कर जाये  तब तो समझ  में आता है. क्योंकि अंग्रेज आदमी जब सूट और टाई  पहनता है तो उसकी पत्नी स्कर्ट पहनती है. तभी तो दोनो एक जैसे होंगे. कहते है की पति पत्नी ग्रहस्ती के दो पहियों की तरह होते है तो फिर दोनों ही बराबर होने चाहिए. एक पहिया साइकिल का एक पहिया किसी और का कैसे चलेगी  ये ग्रहस्थी।    या तो दोनों ही अग्रेज़ी कपड़े पहनो या फिर दोनों ही भारतीय पोषक  पहनो।  कितनी अच्छी और आरामदायक पोशाक है धोती, कुर्ता , पाजामा !  शरीर में पूरे तरह से हवा लगती रहती है और बहुत सारी पसीने  और त्वचा के बीमारियों  से मुक्ति मिल जाती है. जींस तो चढ़ती ही नही है, पहनने के लिए ज़मीन पर लेट जाते है; 45 अंश पर पाँव उठाते है ऐसी  कसी हुई जींस पहनते है. एक बार चढ़ गई तो उतरती  नहीं  है. कई बार उसके साथ बहुत कुछ  उतर जाता है. इसलिए अँग्रेज़ी भाषा छोड़ो, अँग्रेज़े पोशाक छोड़ो।  भारतिय है भारतिय, भाषा,भूषा और भोजन इस्तेमाल करें.

 

हमारा भोजन  रोटी, दाल, चावल, इडली, बढ़ा, सांभर, उत्पम. पीजा बर्गर, हॉट डॉग, चौमीन ये सब अँग्रेज़ी खाना है. विचित्र विचित्र नाम है; हॉट डॉग मतलब "गरम कुत्ता", कोल्ड डॉग "ठंडा कुत्ता" खा रहे है उसको. एक डबल रोटी होती पाव जो सड़े  हुए मैदे से बनती है. आप अगर उसको बनता हुआ देख  लें तो उसको छू  नहीं  सकते इतने गंदे तरीके से बो बनती है. मैदे को सड़ाते है डबल रोटी बनाते है; फिर बीच से काट ते है और उसमें बीच में भर दिया खीरा ककड़ी और बोलते है हॉट डॉग हो गया कोल्ड डॉग हो गया. अपने पास इतनी खाने के अलग अलग चीज़ें  है जितनी सारी दुनियाँ में नहीं  है. यूरोप और अमेरिका में कुछ नहीं  है सब यही खाते है. यूरोप में गेहूँ तो होता है पर  उससे उनको रोटी बनानी नहीं  आती है. पूरा यूरोप बस ब्रेड और पाव रोटी ख़ाता रहता है. किसी को रोटी बनाना नहीं  आता है।  भारत की हर माँ  और बहन को आता है. अगर आप उनको आटा  दे दो और रोटी बनाने को कहदो तो पता नही क्या बना देंगे. मैने तो ऐसी माताएँ भी देखी है यूरोप मैं जिन्हें दही जमाना नहीं आता है. वो बाजार से कुछ पावडर खरीद कर ले आते है और पानी मिला कर खा जाते है ना दही ना मठ्ठा . हमारे घर की हर माँ  को ये आता है. खाने की तकनीक के मामले मैं हम उनसे बहुत आगे  हैं. मैने एक दिन हिसाब निकाला कि  में जन्म  से लेकर मृत्यु  तक रोज एक नया व्यंजन खा सकता हूँ।  य़े  सिर्फ़ इसी देश में  संभव है किसी और देश मैं नहीं . मुझे तो लगता  है कि  भारत में सबसे बड़ी शोध अगर हुई है तो रसोई घर में हुई है. इतना अच्छा  रसोई घर हमरे पास फिर भी हम दूसरों के बेकार व्यंजन क्यों खाएँ?

 

 

भजन भी भारत को हो, संगीत भी भारत का सुनो. विदेशी संगीत में भी कुछ  नहीं  रखा है. माइकल जेक्सन  मर गया, भला हो भगवान ने उसको बुला लिया;वो एक तरह का डांस करता था लेकिन मुझे आज तक समझ  में नहीं  आया की वो डांस है या व्यायाम. विचत्र विचित्र तरीके से हाथ को इधर उधर फेकना; इससे तो अच्छी   हमारे  यहाँ कसरत होती है; ये नृत्य है।  जब बो गाता था तो बिल्कुल नहीं  समझ  में आता था की वो गा  क्या रहा है. ना शब्द समझ आते है ना अर्थ समझ  आता है.  कुच्छ मूर्ख लोगों को उसी में डूबने  में मज़ा आता है. रैप  संगीत, पोप संगीत.   अपना संगीत किसी मामले में किसी से कम नहीं  है.  इस देश का संगीत बेहतरीन है. इस देश के संगीत की गहराई देखो  की एक एक समय के लिए एक एक राग की व्यवस्था है. गर्मी में अलग, सर्दी में अलग, वारिश में लग. इतना ही नहीं  सुबह,शाम और दोपहर का अलग संगीत. जिस देश में संगीत इतनी   गहराई से बना हो उस देश के लोग विदेशी संगीत के पीछे  क्यों जाए. छोड़ो ये विदेशी संगीत. हमें इसकी कोई ज़रूरत नहिएं है.

 

पेप्सी कोला और कोका कोला दोनों ही विदेशी कंपनियाँ है.  हम इसको पी रहे हैं और दूसरों को पिला रहे हैं. वो थोड़ा सा टेक्स देकर हर बोतल पर 10 रुपये कमाकर बाहर भेज ते है. हर साल हम 700 करोड़ बोतल पीते है और 7000 करोड़ बाहर चला जाता है. अमेरिका ये पैसा पाकिस्तान को देता है; पाकिस्तान इसे आतंकवादियों को देता हैं. और वो इससे बम बनाकर हम पर ही चलाते हैं. और हम पेप्सी कोला पीकर भारत माता के जय  बोलते रहते हैं. ये पीने लायक नही है. बहुत  से लोगों  को मैंने  पूछा की पीने में मज़ा आता है?   गले में जलन होती है, खट्टी लगती है, डकारें आती है फिर भी मूर्खों के मूर्ख पीते ही रहते हैं. ये कोल्ड ड्रिंक्स बनते हैं "फॉस्फोरिक एसिड"  से;  और इसी फॉस्फोरिक एसिड  से संडास सॉफ करने वाला फिनायल भी बनता है. हार्पीक भी बनता है. एक बार मैने पेप्सी कोक  से अपने घर का शौचालय सॉफ किया बहुत अच्छा साफ़  होता है. मैंने  क्या  किया;  एक महीने तक मैने शौचालय सॉफ नही किया उसके बाद जब खूब गंदा हो गया तो पेप्सी की एक बोतल लाकर उस में डाल डी और वीस मिनट बाद पानी  से सॉफ किया. शौचालाय एक दम सफेद हो गया. उस दिन से मैने एक विज्ञापन  शुरू किया, ठंडा मतलब टॉयलेट क्लीनर. अब हम उसको पीते है और आने वालों लो भी पिलाते  हैं. एक तरफ कहते हैं की अतिथि देवता होता है दूसरी तरफ उसे संडास सॉफ करने वाला पानी पिलाते  हैं. कुच्छ अतिथि तो इतने मूर्ख होते हैं कहते है की ठंडा लाओ मतलब टॉयलेट क्लीनर पिलाओ. क्यों पी रहे बेकार चीज़ है ?  छोड़  दीजिए. मैं आपको एक सच्ची बात बताता हूँ. में महाराष्ट्र  के विदर्भ क्षेत्र में रहता हूँ जिसमें वर्धा, हिंगन घाट, चंद्रा पूर , नागपुर क्षेत्र आते हैं.  उस इलाक़े में कपास की फसल बहुत होती है. कपास में कीड़े भी लगते है जिसे मारने  के लिए लोग पेप्सी ओर कोका कोला को पानी में मिलकर छिड़कते  हैं, और कीड़े मर जाते हैं. पेप्सी कोला में जहर है  एन्डोसल्फान , मेलथियान ,डाई क्रोमेट ,मोनो क्रोमेट ,क्लोरोपायरीफोस ये सब कीड़े मारने  के जहर है जो पेप्सी और कोके में  भी होते हैं. मत पियो जहर!  फिर बोलोगे  क्या पीयेन  तो पीने के लिए बहुत कुछ  है लस्सी, मौसमी का रस, गन्ने का रस, बेल का सरबत और कुछ  नहीं  मिले तो घड़े का ठंडा पानी, सस्ता  भी है और गुडवत्ता में भी अच्छा है. तो विदेशी बस्तुओं का बहिष्कार करो. इसी तरह ये कोलगेट क्लोसअप विदेशी है. इस सबको छोड़ दो इसकी जगह नींम  का दातून करों या बबूल का दातून करो. ये जो कोलगेट है इसमें एक रसायन होता है जिसका नाम  है सोडियम लौरेल सल्फ़ेट जो केंसर करता है. अमेरिका में कोलगेट के उपर चेतावनी लिखी रहती है क्यों की उसमें केंसर करने बाला रसायन है.  आप छोड़ो इसको और दातून करो  !  ये नुकसान तो करता ही है महँगा भी बहुत है. घी  से ज़्यादा महँगा है. घी  हम रोटी पर लगाकर खा लेते है और महँगा ख़रीदकर  नाली में थूक देते  हैं. और कहते हैं की हम बहुत समझदार है. मैं तो कहता हूँ और थोड़े समझदार बनो. वो पूछते  हैं क्या करें? मैं कहता हूँ की जो इतना महँगा कोलगेट नाली में बहा देते हो उसको पूरा ही निगल जाओ रोटी पर लगाकर क्योंकि ये तो गाय के घी  से महँगा है. ये मूर्खताएँ  छोड़  दो और दातून करो नहीं  तो दाँत मंजन ख़रीदो ना; लाल दाँत मंजन कला दाँत मंजन अब तो  स्वामी जी का बनाया हुआ दिव्य दन्त  मंजन भी है. कम से कम पैसा स्वामी जी के ट्रस्ट को तो जाएगा और भारत स्वाभिमान के भी काम आएगा. आप कोलगेट को देदो  वो अमेरिका चला जाएगा. और एक बात बता दूँ  की ये सभी टूथ  पेस्ट कोलगेट , क्लोजप, सिबाका सब मारे हुए जानवरों की  हड्डियों के चूरे से बनते है. सबेरे ही सबेरे आप इनको मुँह में रगड़ते है धर्म भ्रष्ट करलेते  हैं. उपवास करने बाले तो ज़रूर रगड़ते हैं ये हड्डियों का चूरा. आप  बंद करो ये !  फिर दाडी  बनाने के लिए ये विदेशी क्रीम पामोलीव, ओल्ड स्पाइस , शुलटन मत ख़रीदो. फिर बोलॉगे की क्या करे?  आप थोड़ा से दूध ले लो चहरे पर लगाओ !  रेजर चलाओ  बहुत चिकनी दादी बनती है. मैं 15 साल से बना रहा हूँ चार फ़ायदे  हैं. दूध लगाओ तो चेहरा चिकना होता है ब्लेड आसानी से चलता है तो ज़्यादा दिन  तक चलता है. दूसरा फ़ायदा  दूध लगाओ तो चेहरे की गंदगी निकाल देता है. तीसरा फायदा  है चेहरे पर दूध लगाओ तो चेहरा चमकता है आप सुंदर भी दिखोगे।  चौथा  फयडा दूध लगाओगे तो पैसा किसान को जाएगा पैसा इस देश में रहेगा. पामोलिव के बिक्री बढ़ेगी तो पैसा विदेश जाएगा.

 

मेरा एक और कहना है की नहाना है तो  विदेशी साबुन लॅक्स, लाइफ्बोय , लिरिल, रेक्सोना  मत लाओ. एक साबुन है  विदेशी,  डव,  40 रुपये का 100 ग्राम यानी की 400 रुपये किलो हम रगड  ते हैं और नाली में बहा देते हैं.  मैं कई लोगों से कहता हूँ डव से क्यों नहाते हो तो लोग कहते हैं की वो दूध से बना है तो मैं कहता हूँ की  दूध से ही नहालो!  हे मूर्ख लोगो दूध के साबुन से नहाने की जगह. अपने देश में हम किसी बुजुर्ग के पाँव छुए  तो कहते हैं दूधों नहाओ पूतों  फलो.  ऐसा तो नहीं  कहा की लॅक्स नहाओ पूतों  फलो. या लाइफ बोय नहाओ  पुत्रियों फलों. शिव रात्रि में शिव जी को किससे नहलाया जाता है.  दूध से की लॅक्स से ! जब शिव जी दूध से नहा सकते है तो भक्त क्यों नही नहा सकते है. आप नहाओ दूध से दूध सबसे अच्छा सफाई करनेका द्राव्या है. चने के आते से नहा लो , मुलतानी मिट्टी  से बॉल धुल लो.  और अगर साबुन ही खरीदना है तो पतंजलि का खरिदलो सोम्या  बहुत अच्छा  है. कम से कम पैसा स्वामी जी के ट्रस्ट को तो जाएगा. नहीं  तो विदेश जाएगा आप सोचो की कहाँ भेजना है.  और जिंदगी में कभी बीमार पडो  तो अँग्रेज़ी दबाई मत खाना . ये सारी अँग्रेज़ी दवाइया जहर है. एक बीमारी ठीक होती है तो दूसरी पैदा होती है. इस लिए जान भी ज़रूरत पड़े आयर्वेदिक दवा का इस्तेमाल करो. और हम  तो कहते है की वीमार  ही मत पढ़ो. रोज सुबह सुबह 30 से 40 मिनट प्राणायाम  करो कभी बीमार नहीं पड़ोगे. यहाँ पर तो पतंजलि के शिक्षक भी हैं जो आपको निशुल्क योग सिखाते हैं. इनकी कक्षाएँ आप कहीं भी लगवा सकते हैं. सब विदेशी चीज़ों का वहिष्कार करके स्वदेशी का अंगीकार करों. हमारे सभी शहीदों का यही सपना था. चाहे वो महात्मा गाँधी हो या सरदार भगत सिंह ; लाला लाजपत राय हों या चंद्र शेखर आज़ाद. ये सारे क्रांति कारी भारत को स्वदेशी बनाना चाहते थे. और अपने अपने जमाने जमाने में इन्होने ईस्ट इंडिया कंपनी की हर चीज़ का वहिष्कार किया था.

 

 दो काम हमें करने  है एक तो  आप भारत स्वाभिमान से जुड़कर हमारी ताक़त बन जाओ. हमारी ताक़त जैसे जैसे बढ़ेगी वैसे वैसे हम ये काम कर पाएँगे . हमें भारत स्वभिमान में 5 करोड़ लोगों को सदस्य बनाना है आप भी उनमे से एक हो सकते हैं. ये ताक़त जिस दिन खड़ी हो जाएगी हम सारी राज्य व्यवस्था  , कृषि व्यवस्था  , शिक्षा व्यवस्था को बदल देना चाहते है. सदस्य बनना बहुत आसान है. क्षेत्रीय कार्यालय में इसका फार्म मिलता है उसको भरकर मामूली सा शुल्क देना होता है .इसमें दो तरह के सदस्य होते है एक साधारण सदस्या होते है जिनको 51 रुपये देना होता है, एक विशिष्ट  सदस्य  हैं जिनको 1100 रुपये दान देना है. हमें थोड़े से पैसे मिलजाएँगे जिसे हम देश के काम में लगाएँगे. किसी के व्यक्तिगत काम के लिए उसका इस्तेमाल नहीं  हो सकता है.  आप भारत स्वभीमान से जुड़ेंगे तो हमारी ताक़त बढ़ेगी, जिस दिन भारत स्वाभिमान के ताक़त बाकी सारी राजनैतिक पार्टियों से बड़ी हो जाएगी उस दिन वही होगा जो हम चाहेंगे. जो हम कहेंगे वही क़ानून बनेगे जो हम कहेंगे वही नियम बनेगे. ऐसा देश हमें बनाना है जिस के लिए लाखों शहीदों के कुर्वानी  हुई है. वैसा ही देश बने ऐसी भावना हमारी है,  जिस में भाषा अपनी हो, शिक्षा अपनी हो , व्यवस्था अपनी हो और भजन भी अपना हो. सार्वजनिक जीवन में व्यवस्था परिवर्तन के लिए भारत स्वाभिमान जैसे संगठन के हाथ मजबूत करें. इस भावना के साथ में आप सबका आभार व्यक्त करता हूँ.  और विशेष आभारी हूँ में आयोजन समिति का जिन्होने मुझे अमर शहीद तांत्या टोपे की शहदात भूमि को बंदन करने का मुझे मौका दिया. आभारी रहूँगा आप लोगों का की जो आप ने सुना वो दूसरों को बताएँ.

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