मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा लेकिन एक आम आदमी के तौर पर इस वैश्वीकरण के बारे में मेरी जो समझ बनी है उसे आपको बताने की कोशिश करूँगा | भाषा आसान रहेगी ताकि किसी को समझने में परेशानी न हो | एक बात और कि इस लेख में जो आंकड़े हैं वो 1991 से लेकर 1997 तक के हैं, ऐसा इसलिए है कि इसी दौर में सबसे ज्यादा हल्ला मचाया गया था इस Globalisation /वैश्वीकरण का |
1991 के वर्ष से इस देश में Globalisation शुरू हुआ और इसका बहुत शोर भी मचाया गया | भारत से पहले साउथ ईस्ट एशिया में ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण (Globalisation, Liberalization, Privatization ) आदि शुरू किया गया था, उसके पहले ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण लैटिन अमेरिका और सोवियत संघ में भी शुरू किया गया था | ये उदारीकरण/ वैश्वीकरण का जो पॅकेज या प्रेस्क्रिप्सन है वो अगर कोई देश अपने अंतर्ज्ञान से तैयार करें तो बात समझ में आती है लेकिन ये पॅकेज dictated होता है वर्ल्ड बैंक और IMF द्वारा | मुझे कभी-कभी हँसी आती है कि 1991 के पहले हम ग्लोबल नहीं थे और 1991 के बाद हम ग्लोबल हो गए | खैर, ये जो वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रेस्क्रिसन होता है वो हर तरह के मरीज (देश) के लिए एक ही होता है | उनके प्रेस्क्रिप्सन में सब मरीजों के लिए समान इलाज होता है, जैसे....
और इसी दौरान हमारे देश के लोगों का बचत कितना था तो वित्त मंत्री का ही कहना था कि हमारे GDP का 24% बचत है भारत के लोगों के द्वारा | मतलब, लगभग 2 लाख करोड़ रुपया बचत था हमारा प्रतिवर्ष जब हमारी GDP 8 लाख करोड़ रूपये की थी | जिस देश की नेट सेविंग इतनी ज्यादा हो उस देश को विदेशी पूंजी निवेश की जरूरत क्या है ? मतलब हम हर साल 2 लाख करोड़ रूपये बचत करते थे उस अवधि में घरेलु बचत के रूप में, और छः साल में आया मात्र 20 हजार करोड़ रुपया या हर साल तीन, सवा तीन हजार करोड़ रूपये और ढोल पीट-पीट कर हल्ला हो रहा था कि देश में उदारीकरण हो रहा है, वैश्वीकरण हो रहा है | किसको बेवकूफ बना रहे हैं आप |
विदेशी पूँजी आती है तो वो आपके फायदे के लिए नहीं आती है वो उनके फायदे के लिए आती है और दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जो आपके फायदे के लिए अपनी पूँजी आपके देश में लगाये | एक तो सच्चाई ये है कि 1980 से यूरोपियन और अमरीकी बाजार में भयंकर मंदी है और जितना मैं अर्थशास्त्र जानता हूँ उसके अनुसार उनको पूँजी की जरूरत है, अपनी मंदी दूर करने के लिए ना कि वो यहाँ पूँजी ले कर आयेंगे | ये छोटी सी बात समझ में आनी चाहिए और अमेरिका और यूरोप वाले इतने दयावान और साधू-महात्मा नहीं हो गए कि अपना घाटा सह कर भारत का भला करने आयेंगे | इतने भले वो ना थे और ना भविष्य में होंगे | और दुसरे हिस्से की बात कीजिये, मतलब 1991 -1997 तक विदेशी पूंजी आयी 20 हजार करोड़ लेकिन इसी अवधि में हमारे यहाँ से कितनी पूंजी चली गयी विदेश ? तो पता चला कि इसी अवधि में हमारे यहाँ से 34 हजार करोड़ रूपये विदेश चले गए | 20 हजार करोड़ रुपया आया और 34 हजार करोड़ रुपया चला गया तो ये बताइए कि कौन किसको पूंजी दे रहा है |
दुनिया में एक South South Commission है जो गुट निरपेक्ष देशों (NAM) के लिए बनाया गया था 1986 में | और 1986 से 1989 तक डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनेरल थे | उनकी वेबसाइट पर आज भी मनमोहन सिंह को ही सेक्रेटरी जेनरल बताया जाता है, और भारत के वित्त मंत्री बनने के पहले भारत के तीन-तीन सरकारों के वित्तीय सलाहकार रह चुके थे, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे, दुनिया में उनकी एक अर्थशास्त्री के रूप में खासी इज्ज़त है | जब डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनरल थे तो इन्होने एक केस स्टडी किया था, उस में उन्होंने दुनिया के 17 गरीब देशों के आंकड़े दिए थे जिसमे भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार, इंडोनेशिया वगैरह शामिल थे | ये अध्ययन इस विषय पर था कि 1986 से 1989 के बीच में इन गरीब देशों में अमीर देशों से कितनी पूंजी आयी है और इन गरीब देशों से अमीर देशों में कितनी पूंजी चली गयी है, तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इन 17 देशों में 1986 से 1989 तक 215 Billion Dollars की पूंजी आयी जिसमे FDI ,Foreign Loan , Foreign Assistance और Foreign Aid शामिल है और जो चली गयी वो राशि है 345 Billion Dollars | अब जो आदमी एक अर्थशास्त्री के रूप में अपने केस स्टडी में ये कह रहा है कि विदेशों से पूंजी आती नहीं बल्कि पूंजी यहाँ से चली जाती है और जब इस देश का वित्त मंत्री बनता है तो 180 डिग्री पर घूम के उलटी बात करता है, ये समझ में नहीं आता | ऐसा क्यों हुआ, इसको समझिये ......
मई 1991 में फ्रांस के एक अख़बार La Monde में ये खबर छपी थी कि "हमारे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि भारत में जो भी सरकार बने मनमोहन सिंह भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे" | यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि उस समय हमारे देश में चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी चुनाव संपन्न नहीं हुए थे और राजीव गाँधी जिन्दा थे | ये मनमोहन सिंह, और मोंटेक सिंह अहलुवालिया वर्ल्ड बैंक के बैठाये हुए आदमी थे और अब प्रधानमंत्री कैसे बने हैं आप समझ सकते हैं | आप लोगों को याद होगा कि एक बार मनमोहन सिंह वित्त मंत्री के पोस्ट से इस्तीफा दिए थे लेकिन वो इस्तीफा वर्ल्ड बैंक के दबाव में मंजूर नहीं किया गया था | वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह मात्र एक रुपया और पच्चीस पैसा टोकन मनी के तौर पर लेते थे | अब कौन वित्त मंत्री बनता है, कौन प्रधान मंत्री बनता है इससे मतलब नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि हमारी राजनैतिक संप्रुभता को क्या हो गया है कि अमेरिका, यूरोप और वर्ल्ड बैंक तय कर रहा है कि वित्त मंत्री कौन होगा, प्रधानमंत्री कौन होगा | और जब वर्ल्ड बैंक या अमेरिका अपना आदमी आपके यहाँ बैठायेगा तो काम भी अपने लिए ही करवाएगा और वही मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया और उनके बाद चिदंबरम ने किया है | FDI, Foreign Loan, Foreign Assistance और Foreign Aid का खूब हल्ला मचाया गया लेकिन हुआ क्या ? भारत और गरीब हो गया | उस समय मनमोहन सिंह और उनके साथ-साथ भारत के अखबार चिल्ला चिल्ला कर इंडोनेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया को Asian Tigers कहते थे और जब इंडोनेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी तो इनकी बोलती बंद हो गयी | और अभी वालमार्ट को लाने का निर्णय कर लिया है तो उसे भी लायेंगे ही, अभी वो रुक गए है तो सिर्फ इसलिए कि पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले है | और इसीलिए ये लोग महंगाई बढ़ने पर इनके दिल में दर्द नहीं होता बल्कि खुश होते हैं, मोंटेक सिंह, मनमोहन सिंह, प्रणव मुख़र्जी और सारे मंत्रिमंडल के बयान पढ़ लीजियेगा |
फिर से मैं उसी वैश्वीकरण पर आता हूँ ........और इसी दौरान जब इस देश में वैश्वीकरण के नाम पर उन्नीस हजार सात सौ करोड़ रूपये का निवेश हुआ, हमारे देश में शेयर मार्केट के माध्यम से 70 हजार करोड़ रूपये की खुले-आम डकैती हो गयी और हमने FIR तक दर्ज नहीं कराई | शेयर मार्केट का वो घोटाला हर्षद मेहता स्कैम के नाम से हम सब भारतीय जाने हैं, लेकिन ये जान लीजिये कि हर्षद मेहता तो महज एक मोहरा था, असल खिलाडी तो अमेरिका का सिटी बैंक था और ये मैं नहीं कह रहा, रामनिवास मिर्धा की अध्यक्षता में गठित Joint Parliamentary Committee का ये कहना था, और रामनिवास मिर्धा कमिटी का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके इस देश से सिटी बैंक का बोरिया-बिस्तर समेटिये और इसको भगाइए, लेकिन भारत सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि सिटी बैंक पर कोई कार्यवाही करे और सिटी बैंक को छोड़ दिया गया और हमारा 70 हजार करोड़ रुपया डूब गया |
आपने ध्यान दिया होगा या आप अगर याद करेंगे तो पाएंगे कि उस globalization के समय (1991 -1997 ) भारत में कई बदलाव हुए थे जैसे ....
भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा विदेशी निवेश को लेकर भारत में भ्रम फैलाया जाता है, तो मैं आपको बता दूँ कि विदेशी कम्पनियाँ आज भी निवेश नहीं करती है, क्योंकि उनके पास निवेश करने के लिए कुछ भी नहीं है | यूरोप और अमेरिका के बाजारों में 1980 से मंदी चल रही है और ये मंदी इतना जबरदस्त है कि खुद उनको अपनी मंदी दूर करने के लिए पूँजी की जरूरत है | जब कोई कंपनी निवेश करती है तो उनका जो Initial paid -up capital होता है उसका सिर्फ 5% ही वो लेकर आती हैं और बाकी 95% पूँजी वो यहीं के बाजार से उठाती हैं, बैंक लोन के रूप में और अपने शेयर बाजार में उतार कर | इसलिए उनके निवेश पर भरोसा करना दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफी है | एक बात को दिमाग में बैठा लीजिये कि कोई भी देश, विदेशी पूँजी निवेश से विकास नहीं करता चाहे वो जापान हो या चीन | जापान और चीन ने भी अपने घरेलु बचत बढ़ाये थे, तब वो कुछ कर सके | हमारी सालाना घरेलु बचत जब 2 लाख करोड़ की है तो हमें विदेशी पूँजी निवेश की जरूरत कहाँ है ? और उन्होंने 6 -7 सालों में जो 20 हजार करोड़ का निवेश किया उसके बदले में हमने कितना गवाँ दिया इसकी चर्चा ये बुद्धिजीवी कभी नहीं करते |
बुद्धिजीवियों का ये भी तर्क है कि वैश्वीकरण से हमारा निर्यात बढ़ा है और आयात कम हुआ है | उसे भी समझ लीजिये, ऐसा इसलिए दिखता है क्यों कि हमारे रूपये का अवमूल्यन बहुत हो गया है, जब वैश्वीकरण इस देश में शुरू हुआ तो हमारे 17 -18 रूपये में एक डौलर मिलता था और आज 2011 के अंत में ये लगभग 55 रूपये हो गया है | इसको उदाहरण से समझ लीजिये, अभी कुछ महीने पहले एक डौलर की कीमत 44 रूपये थी तो 11 रूपये प्रतिकिलो के हिसाब से हमने 4 किलो प्याज निर्यात किया तो हमें एक डौलर मिला, अब उसी एक डौलर को पाने के लिए आज हमें 11 रूपये प्रति किलो के हिसाब से 5 किलो प्याज देना होगा, जब एक डौलर की कीमत 55 रूपये हो गयी है | समझ रहे हैं आप ? मतलब हमारा volume of export तो बढ़ा लेकिन आया एक ही डौलर, तो नुकसान किसका हो रहा है ? हमारी निर्यात से होने वाली आय ख़त्म होती जा रही है और जितना निर्यात नहीं बढ़ रहा है उससे ज्यादा आयात बढ़ रहा है, नहीं तो हमारा व्यापार घाटा (trade deficit ) इतना क्यों है ? 1991 के बजट में भारत सरकार का 3000 करोड़ का व्यापार घाटा था और 1997 में ये 18000 करोड़ का हो गया | अगर हमारा निर्यात बढ़ रहा है तो फिर ये व्यापार घाटा क्यों है ? विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी कितनी है ये भी जान लीजिये, आंकड़े तो मेरे पास हर वर्ष के हैं, लेकिन मैं उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर की ही बात करूँगा, 1990 में हमारी विश्व व्यापार में हिस्सेदारी थी 0.05%, 1991 में ये हो गया 0.045%, 1992 में ये हो गया 0.042%, 1993 में ये हो गया 0.041%, 1994 में ये हो गया 0.038% और ये घटते-घटते आज 2011 में लगभग आधा प्रतिशत रह गया है | हमारी कितनी बड़ी हिस्सेदारी है विश्व व्यापार में कि हम निर्यात के पीछे पड़े हैं ?
हमारे यहाँ Export Oriented Growth का मंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा जपा जाता है, जब कि हमारे जैसे विकासशील देशों को Export Oriented Growth के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए | हमको development oriented growth पर ध्यान देना चाहिए, Growth oriented Export करना होगा, नीतियाँ बदलनी होगी हमें | अभी क्या है कि हम export oriented growth में फंसे हैं | मैं कहना ये चाहता हूँ कि growth oriented export कीजिये, तो इसके लिए पहले उत्पादन बढाइये, मतलब उत्पादन को भारत में इतना surplus कीजिये कि आपके पास निर्यात करने के लिए अलग से बचे, हम तो अपने trade को ख़त्म करते जा रहे हैं, market को ख़त्म करते जा रहे हैं, मतलब trading activity धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है | आपके पास बचा क्या है निर्यात करने के लिए जो आप निर्यात करेंगे ?
और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बारे में भ्रम फैलाया जाता है कि उनके आने से बाजार में प्रतियोगिता होती है | सच्चाई ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कभी प्रतियोगिता नहीं करती हैं बल्कि प्रतियोगियों को उखाड़ फेंकती हैं | पेप्सी और कोका कोला को देखिये, इनके आने के पहले भारत में थम्स-अप, कैम्पा कोला, गोल्ड स्पोट, लिम्का, आदि ब्रांड थे लेकिन पेप्सी और कोका कोला के आने के बाद या तो इन्होने इनका अपने में विलय कर लिया या ये बंद हो गयी | ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों में कई उदहारण हैं | तो ये भ्रम दिमाग से निकालना होगा, उनके आने से competition नहीं monopoly होती है |
ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण हो रहा है तो किसको ध्यान में रखकर तो जवाब है बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ध्यान में रखकर, देश की आबादी के 70 प्रतिशत किसानों को ध्यान में रखकर ये होता तो समझ में भी आता | भारत का किसान अपना गेंहू और कपास लेकर एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश में बेंच नहीं सकता लेकिन अमेरिका की कारगिल कंपनी उसी गेंहू को भारत के किसी भी गाँव में बेच देगी क्योंकि उसे अधिकार मिला हुआ है | पहले हमें अपने देश के अन्दर Liberalization करना होगा | पहले हमें घरेलु या आतंरिक उदारीकरण (Internal Liberalization) करना होगा और उसको 10-15 साल चलाना होगा | यही नीति जापान ने चलाई, यही नीति चीन ने चलाई, यही नीति अमेरिका ने चलाया, यही नीति फ़्रांस ने चलाया | मैं कहना ये चाहता हूँ कि अच्छी बातें तो हम सीखते नहीं और सीखेंगे क्या तो जिसे दुनिया में हमने फेल होते देखा, भारत में जो उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीति अपनाई गयी है वही नीति दक्षिण कोरिया ने अपनाया था, रूस ने अपनाया था, थाईलैंड ने अपनाया था , ब्राजील ने अपनाया था और सब के सब डूबे थे |
भारत में एक प्रधानमंत्री हुए मोरारजी देसाई उनकी सरकार ने भारत में जितने भी Zero Technology के क्षेत्र में MNC (Multi National Company) काम कर रहे थे उनमे से अधिकांश को भारत से भगाया था | ये Zero Technology वाले उत्पादों की संख्या लगभग 700 थी | और आप ध्यान दीजियेगा कि ये जितने भी MNC आये हैं वो उन्हीं क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं जिस क्षेत्र को मोरारजी देसाई की सरकार ने प्रतिबंधित किया था | मतलब जिन कंपनियों को मोरारजी देसाई की सरकार ने भगाया था सब की सब वापस आ गयी हैं | दूसरी बात, जितने भी MNC हैं वो कभी भी हमारे देश में आ के कोई technology के क्षेत्र में निवेश नहीं करते हैं | क्या कभी किसी कंपनी ने आ के यहाँ satellite बनाया या किसी ने मिसाइल बनाने में मदद की ? Technology इस देश में बाहर से जो भी आती है वो outdated /redundant होती है | 1991 में उदारीकरण (जिसे मैं उधारीकरण कहता हूँ ) के बाद जितने भी MoU (Memorandum of Understanding) sign हुए इस देश में सब के सब zero technology के क्षेत्र में हुए हैं | आप देखिएगा कि ये क्या बनाती हैं और बेचती हैं, ये बनाती है - साबुन,वाशिंग पावडर, आलू का चिप्स, टमाटर की चटनी, आम का आचार, बोतल का पानी, चोकलेट, बिस्कुट, पावरोटी, आदि, आदि | एक भी उदहारण कोई दे दे जब इन विदेशी कंपनियों ने तकनीक के क्षेत्र में निवेश किया हो | भारत ने अपने स्वदेशी तकनीक से सुपर कंप्यूटर बनाया, भारत ने अपने बूते मिसाइल बनाया, भारत ने अपने दम पर क्रायोजनिक इंजन बनाया, एक भी कंपनी ने भारत को तकनीक तो दूर सहयोग तक नहीं दिया | मारुती में जो सुजुकी का इंजन लगता है वो इंजन यहाँ नहीं जापान में बनता है, हीरो होंडा में जो इंजन लगता था वो जापान से बन के आता था , मतलब ये है कि अपने तकनीक को ये कम्पनियाँ शेयर नहीं करती वो कोई तकनीक जानते हैं तो आपको देते नहीं हैं और जब वही तकनीक उनके लिए पुरानी या बेकार हो जाती है तो वो उसे भारत में ला के dump कर देती हैं और हम खुश हो जाते हैं कि नयी तकनीक आयी है |
आप दुनिया में जितने भी विकसित देश देखेंगे वो सब स्वदेशी के बल पर आगे आये हैं | भारत को भी खड़ा करना है तो स्वदेशी के माध्यम से ही खड़ा किया जा सकता है | अगर आप विदेशियों पर निर्भर हैं या परावलम्बी है तो आप दुनिया में कभी कोई ताकत हासिल नहीं कर सकते | विदेशी वैसाखी पर, परावलम्बी होकर, विदेशी चिंतन से, विदेशी अर्थव्यवस्था की नीतियों की नक़ल से कोई देश कभी आगे नहीं आता, हर देश को आगे आने के लिए स्वदेशी का चिंतन, स्वदेशी का मनन और स्वदेशी का अनुपालन करना पड़ता है |
15 अगस्त 1947 को भारत ऐसा नहीं था, भारत के ऊपर एक रूपये का विदेशी कर्ज नहीं था, भारत का व्यापार घाटा एक रूपये का नहीं था | एक डौलर की कीमत भारत के एक रुपया के बराबर थी, एक पोंड की कीमत एक रुपया के बराबर थी और एक जर्मन मार्क की कीमत भी एक रुपया थी, भारत आजाद हुआ तो भारत को आगे की तरफ बढ़ना चाहिए था लेकिन हुआ उल्टा | हमारे नीति निर्धारकों ने भारत को पश्चिम के रास्ते आगे बढ़ाने का प्रयास किया जो कि किसी भी दृष्टिकोण से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती है | आज का भारत कर्ज में डूबा हुआ भारत है, भारत की हर प्राकृतिक चीज विदेशियों के हाथ में चली गयी है, अब तो भारत के लोग भी भारतीय नहीं रहे, जब कोई राष्ट्र की बात करता है तो लोग उसे ही गालिया देने लगते हैं | मैं भारत में पैदा हुआ और भारत की संस्कृति में पला-बढ़ा, और हमारे भारत की संस्कृति में मरने वाले के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है लेकिन मैं भगवान से ये प्रार्थना करता हूँ कि इन 64 सालों में जिन-जिन शासकों ने भारत को इस दुष्चक्र में पहुँचाया है, उनकी आत्मा को कभी शांति प्रदान ना करें |
जय हिंद
राजीव दीक्षित
1991 के वर्ष से इस देश में Globalisation शुरू हुआ और इसका बहुत शोर भी मचाया गया | भारत से पहले साउथ ईस्ट एशिया में ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण (Globalisation, Liberalization, Privatization ) आदि शुरू किया गया था, उसके पहले ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण लैटिन अमेरिका और सोवियत संघ में भी शुरू किया गया था | ये उदारीकरण/ वैश्वीकरण का जो पॅकेज या प्रेस्क्रिप्सन है वो अगर कोई देश अपने अंतर्ज्ञान से तैयार करें तो बात समझ में आती है लेकिन ये पॅकेज dictated होता है वर्ल्ड बैंक और IMF द्वारा | मुझे कभी-कभी हँसी आती है कि 1991 के पहले हम ग्लोबल नहीं थे और 1991 के बाद हम ग्लोबल हो गए | खैर, ये जो वर्ल्ड बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रेस्क्रिसन होता है वो हर तरह के मरीज (देश) के लिए एक ही होता है | उनके प्रेस्क्रिप्सन में सब मरीजों के लिए समान इलाज होता है, जैसे....
- पहले वो कहते हैं कि आप अपने मुद्रा का अवमूल्यन कीजिये |
- उसके बाद कहते हैं कि इम्पोर्ट ड्यूटी ख़त्म कीजिये |
- उसके बाद कहते हैं कि Social Expenditure कम करते-करते इसको ख़त्म कीजिये, क्योंकि उनका कहना है कि सरकार को Social Expenditure से कोई मतलब नहीं होता है |
- पहला तर्क है कि भारत को पूंजी की बहुत जरूरत है और जब तक विदेशी पूंजी निवेश नहीं होगा, FDI (Foreign Direct Investment) नहीं आएगा तो देश का भला नहीं होगा |
- इस देश में तकनीक की बहुत कमी है और वो तभी आएगा जब आप अपना दरवाजा विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोलेंगे |
- आपके देश का एक्सपोर्ट कम है, जब तक आप बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नहीं बुलाएँगे तब तक आपका निर्यात नहीं बढेगा |
- आप उनको खुल कर खेलने की छुट दीजिये, उनपर कोई पाबन्दी मत लगाइए |
- यहाँ भारत में बहुत बेरोजगारी है, विदेशी कंपनियां आएँगी तो वो यहाँ रोजगार पैदा करेंगी, वगैरह, वगैरह |
और इसी दौरान हमारे देश के लोगों का बचत कितना था तो वित्त मंत्री का ही कहना था कि हमारे GDP का 24% बचत है भारत के लोगों के द्वारा | मतलब, लगभग 2 लाख करोड़ रुपया बचत था हमारा प्रतिवर्ष जब हमारी GDP 8 लाख करोड़ रूपये की थी | जिस देश की नेट सेविंग इतनी ज्यादा हो उस देश को विदेशी पूंजी निवेश की जरूरत क्या है ? मतलब हम हर साल 2 लाख करोड़ रूपये बचत करते थे उस अवधि में घरेलु बचत के रूप में, और छः साल में आया मात्र 20 हजार करोड़ रुपया या हर साल तीन, सवा तीन हजार करोड़ रूपये और ढोल पीट-पीट कर हल्ला हो रहा था कि देश में उदारीकरण हो रहा है, वैश्वीकरण हो रहा है | किसको बेवकूफ बना रहे हैं आप |
विदेशी पूँजी आती है तो वो आपके फायदे के लिए नहीं आती है वो उनके फायदे के लिए आती है और दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जो आपके फायदे के लिए अपनी पूँजी आपके देश में लगाये | एक तो सच्चाई ये है कि 1980 से यूरोपियन और अमरीकी बाजार में भयंकर मंदी है और जितना मैं अर्थशास्त्र जानता हूँ उसके अनुसार उनको पूँजी की जरूरत है, अपनी मंदी दूर करने के लिए ना कि वो यहाँ पूँजी ले कर आयेंगे | ये छोटी सी बात समझ में आनी चाहिए और अमेरिका और यूरोप वाले इतने दयावान और साधू-महात्मा नहीं हो गए कि अपना घाटा सह कर भारत का भला करने आयेंगे | इतने भले वो ना थे और ना भविष्य में होंगे | और दुसरे हिस्से की बात कीजिये, मतलब 1991 -1997 तक विदेशी पूंजी आयी 20 हजार करोड़ लेकिन इसी अवधि में हमारे यहाँ से कितनी पूंजी चली गयी विदेश ? तो पता चला कि इसी अवधि में हमारे यहाँ से 34 हजार करोड़ रूपये विदेश चले गए | 20 हजार करोड़ रुपया आया और 34 हजार करोड़ रुपया चला गया तो ये बताइए कि कौन किसको पूंजी दे रहा है |
दुनिया में एक South South Commission है जो गुट निरपेक्ष देशों (NAM) के लिए बनाया गया था 1986 में | और 1986 से 1989 तक डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनेरल थे | उनकी वेबसाइट पर आज भी मनमोहन सिंह को ही सेक्रेटरी जेनरल बताया जाता है, और भारत के वित्त मंत्री बनने के पहले भारत के तीन-तीन सरकारों के वित्तीय सलाहकार रह चुके थे, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे, दुनिया में उनकी एक अर्थशास्त्री के रूप में खासी इज्ज़त है | जब डॉक्टर मनमोहन सिंह इस South South Commission के सेक्रेटरी जेनरल थे तो इन्होने एक केस स्टडी किया था, उस में उन्होंने दुनिया के 17 गरीब देशों के आंकड़े दिए थे जिसमे भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार, इंडोनेशिया वगैरह शामिल थे | ये अध्ययन इस विषय पर था कि 1986 से 1989 के बीच में इन गरीब देशों में अमीर देशों से कितनी पूंजी आयी है और इन गरीब देशों से अमीर देशों में कितनी पूंजी चली गयी है, तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इन 17 देशों में 1986 से 1989 तक 215 Billion Dollars की पूंजी आयी जिसमे FDI ,Foreign Loan , Foreign Assistance और Foreign Aid शामिल है और जो चली गयी वो राशि है 345 Billion Dollars | अब जो आदमी एक अर्थशास्त्री के रूप में अपने केस स्टडी में ये कह रहा है कि विदेशों से पूंजी आती नहीं बल्कि पूंजी यहाँ से चली जाती है और जब इस देश का वित्त मंत्री बनता है तो 180 डिग्री पर घूम के उलटी बात करता है, ये समझ में नहीं आता | ऐसा क्यों हुआ, इसको समझिये ......
मई 1991 में फ्रांस के एक अख़बार La Monde में ये खबर छपी थी कि "हमारे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि भारत में जो भी सरकार बने मनमोहन सिंह भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे" | यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि उस समय हमारे देश में चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी चुनाव संपन्न नहीं हुए थे और राजीव गाँधी जिन्दा थे | ये मनमोहन सिंह, और मोंटेक सिंह अहलुवालिया वर्ल्ड बैंक के बैठाये हुए आदमी थे और अब प्रधानमंत्री कैसे बने हैं आप समझ सकते हैं | आप लोगों को याद होगा कि एक बार मनमोहन सिंह वित्त मंत्री के पोस्ट से इस्तीफा दिए थे लेकिन वो इस्तीफा वर्ल्ड बैंक के दबाव में मंजूर नहीं किया गया था | वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह मात्र एक रुपया और पच्चीस पैसा टोकन मनी के तौर पर लेते थे | अब कौन वित्त मंत्री बनता है, कौन प्रधान मंत्री बनता है इससे मतलब नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण ये है कि हमारी राजनैतिक संप्रुभता को क्या हो गया है कि अमेरिका, यूरोप और वर्ल्ड बैंक तय कर रहा है कि वित्त मंत्री कौन होगा, प्रधानमंत्री कौन होगा | और जब वर्ल्ड बैंक या अमेरिका अपना आदमी आपके यहाँ बैठायेगा तो काम भी अपने लिए ही करवाएगा और वही मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलुवालिया और उनके बाद चिदंबरम ने किया है | FDI, Foreign Loan, Foreign Assistance और Foreign Aid का खूब हल्ला मचाया गया लेकिन हुआ क्या ? भारत और गरीब हो गया | उस समय मनमोहन सिंह और उनके साथ-साथ भारत के अखबार चिल्ला चिल्ला कर इंडोनेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया को Asian Tigers कहते थे और जब इंडोनेशिया, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी तो इनकी बोलती बंद हो गयी | और अभी वालमार्ट को लाने का निर्णय कर लिया है तो उसे भी लायेंगे ही, अभी वो रुक गए है तो सिर्फ इसलिए कि पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले है | और इसीलिए ये लोग महंगाई बढ़ने पर इनके दिल में दर्द नहीं होता बल्कि खुश होते हैं, मोंटेक सिंह, मनमोहन सिंह, प्रणव मुख़र्जी और सारे मंत्रिमंडल के बयान पढ़ लीजियेगा |
फिर से मैं उसी वैश्वीकरण पर आता हूँ ........और इसी दौरान जब इस देश में वैश्वीकरण के नाम पर उन्नीस हजार सात सौ करोड़ रूपये का निवेश हुआ, हमारे देश में शेयर मार्केट के माध्यम से 70 हजार करोड़ रूपये की खुले-आम डकैती हो गयी और हमने FIR तक दर्ज नहीं कराई | शेयर मार्केट का वो घोटाला हर्षद मेहता स्कैम के नाम से हम सब भारतीय जाने हैं, लेकिन ये जान लीजिये कि हर्षद मेहता तो महज एक मोहरा था, असल खिलाडी तो अमेरिका का सिटी बैंक था और ये मैं नहीं कह रहा, रामनिवास मिर्धा की अध्यक्षता में गठित Joint Parliamentary Committee का ये कहना था, और रामनिवास मिर्धा कमिटी का कहना था कि जितनी जल्दी हो सके इस देश से सिटी बैंक का बोरिया-बिस्तर समेटिये और इसको भगाइए, लेकिन भारत सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि सिटी बैंक पर कोई कार्यवाही करे और सिटी बैंक को छोड़ दिया गया और हमारा 70 हजार करोड़ रुपया डूब गया |
आपने ध्यान दिया होगा या आप अगर याद करेंगे तो पाएंगे कि उस globalization के समय (1991 -1997 ) भारत में कई बदलाव हुए थे जैसे ....
- शेयर बाज़ार बहुत तेजी से बढ़ा और बहुत से लोगों ने उस दौर में शेयर में पैसा लगाया था और कुछ लोगों ने पैसा भी बनाया लेकिन ज्यादा मध्य वर्ग के लोग बर्बाद हुए | और market manipulation और media management कैसे किया जाता है ये थोडा सा दिमाग लगायेंगे तो आपको पता लग जायेगा |
- Satellite Television Channel आना शुरू हुए, हमारे मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि प्रचार दिखा कर दिमाग में बकवास भरने के लिए और आपको याद होगा कि दूरदर्शन के दिनों में हम बिना ब्रेक के सीरियल और फिल्म देखा करते थे | लुभावने प्रचार दिखा-दिखा कर भारत के लोगों को प्रेरित करने की कोशिश की गयी ताकि हम बचत पर नहीं खरीदारी पर ध्यान दे और ज्यादा से ज्यादा पैसा बाज़ार में आये और वो पैसा विदेशों में जाये |
- बैंकों ने बचत पर इंटेरेस्ट रेट कम कर दिया ताकि लोग बैंक में पैसा जमा नहीं कर के खरीदारी करे, पैसा बाज़ार में इन्वेस्ट करें | क़र्ज़ लेने पर इंटेरेस्ट रेट बढ़ा दिया गया |
- इसी दौर में कई city developer और builder पैदा हुए जो घर और फ्लैट का सपना दिखा कर लोगों का पैसा बाहर निकालना शुरू किये और अगर पैसा नहीं है तो बैंकों ने होम लोन का सपना दिखाना शुरू किया |
- बैंकों के मार्फ़त हाऊसिंग लोन और कार लोन को बढ़ावा दिया गया, ताकि लोग कर्ज लेकर गाड़ी और घर खरीदें |
भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा विदेशी निवेश को लेकर भारत में भ्रम फैलाया जाता है, तो मैं आपको बता दूँ कि विदेशी कम्पनियाँ आज भी निवेश नहीं करती है, क्योंकि उनके पास निवेश करने के लिए कुछ भी नहीं है | यूरोप और अमेरिका के बाजारों में 1980 से मंदी चल रही है और ये मंदी इतना जबरदस्त है कि खुद उनको अपनी मंदी दूर करने के लिए पूँजी की जरूरत है | जब कोई कंपनी निवेश करती है तो उनका जो Initial paid -up capital होता है उसका सिर्फ 5% ही वो लेकर आती हैं और बाकी 95% पूँजी वो यहीं के बाजार से उठाती हैं, बैंक लोन के रूप में और अपने शेयर बाजार में उतार कर | इसलिए उनके निवेश पर भरोसा करना दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफी है | एक बात को दिमाग में बैठा लीजिये कि कोई भी देश, विदेशी पूँजी निवेश से विकास नहीं करता चाहे वो जापान हो या चीन | जापान और चीन ने भी अपने घरेलु बचत बढ़ाये थे, तब वो कुछ कर सके | हमारी सालाना घरेलु बचत जब 2 लाख करोड़ की है तो हमें विदेशी पूँजी निवेश की जरूरत कहाँ है ? और उन्होंने 6 -7 सालों में जो 20 हजार करोड़ का निवेश किया उसके बदले में हमने कितना गवाँ दिया इसकी चर्चा ये बुद्धिजीवी कभी नहीं करते |
बुद्धिजीवियों का ये भी तर्क है कि वैश्वीकरण से हमारा निर्यात बढ़ा है और आयात कम हुआ है | उसे भी समझ लीजिये, ऐसा इसलिए दिखता है क्यों कि हमारे रूपये का अवमूल्यन बहुत हो गया है, जब वैश्वीकरण इस देश में शुरू हुआ तो हमारे 17 -18 रूपये में एक डौलर मिलता था और आज 2011 के अंत में ये लगभग 55 रूपये हो गया है | इसको उदाहरण से समझ लीजिये, अभी कुछ महीने पहले एक डौलर की कीमत 44 रूपये थी तो 11 रूपये प्रतिकिलो के हिसाब से हमने 4 किलो प्याज निर्यात किया तो हमें एक डौलर मिला, अब उसी एक डौलर को पाने के लिए आज हमें 11 रूपये प्रति किलो के हिसाब से 5 किलो प्याज देना होगा, जब एक डौलर की कीमत 55 रूपये हो गयी है | समझ रहे हैं आप ? मतलब हमारा volume of export तो बढ़ा लेकिन आया एक ही डौलर, तो नुकसान किसका हो रहा है ? हमारी निर्यात से होने वाली आय ख़त्म होती जा रही है और जितना निर्यात नहीं बढ़ रहा है उससे ज्यादा आयात बढ़ रहा है, नहीं तो हमारा व्यापार घाटा (trade deficit ) इतना क्यों है ? 1991 के बजट में भारत सरकार का 3000 करोड़ का व्यापार घाटा था और 1997 में ये 18000 करोड़ का हो गया | अगर हमारा निर्यात बढ़ रहा है तो फिर ये व्यापार घाटा क्यों है ? विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी कितनी है ये भी जान लीजिये, आंकड़े तो मेरे पास हर वर्ष के हैं, लेकिन मैं उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर की ही बात करूँगा, 1990 में हमारी विश्व व्यापार में हिस्सेदारी थी 0.05%, 1991 में ये हो गया 0.045%, 1992 में ये हो गया 0.042%, 1993 में ये हो गया 0.041%, 1994 में ये हो गया 0.038% और ये घटते-घटते आज 2011 में लगभग आधा प्रतिशत रह गया है | हमारी कितनी बड़ी हिस्सेदारी है विश्व व्यापार में कि हम निर्यात के पीछे पड़े हैं ?
हमारे यहाँ Export Oriented Growth का मंत्र बुद्धिजीवियों द्वारा जपा जाता है, जब कि हमारे जैसे विकासशील देशों को Export Oriented Growth के चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए | हमको development oriented growth पर ध्यान देना चाहिए, Growth oriented Export करना होगा, नीतियाँ बदलनी होगी हमें | अभी क्या है कि हम export oriented growth में फंसे हैं | मैं कहना ये चाहता हूँ कि growth oriented export कीजिये, तो इसके लिए पहले उत्पादन बढाइये, मतलब उत्पादन को भारत में इतना surplus कीजिये कि आपके पास निर्यात करने के लिए अलग से बचे, हम तो अपने trade को ख़त्म करते जा रहे हैं, market को ख़त्म करते जा रहे हैं, मतलब trading activity धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है | आपके पास बचा क्या है निर्यात करने के लिए जो आप निर्यात करेंगे ?
और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बारे में भ्रम फैलाया जाता है कि उनके आने से बाजार में प्रतियोगिता होती है | सच्चाई ये है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कभी प्रतियोगिता नहीं करती हैं बल्कि प्रतियोगियों को उखाड़ फेंकती हैं | पेप्सी और कोका कोला को देखिये, इनके आने के पहले भारत में थम्स-अप, कैम्पा कोला, गोल्ड स्पोट, लिम्का, आदि ब्रांड थे लेकिन पेप्सी और कोका कोला के आने के बाद या तो इन्होने इनका अपने में विलय कर लिया या ये बंद हो गयी | ऐसे अलग-अलग क्षेत्रों में कई उदहारण हैं | तो ये भ्रम दिमाग से निकालना होगा, उनके आने से competition नहीं monopoly होती है |
ये उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण हो रहा है तो किसको ध्यान में रखकर तो जवाब है बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ध्यान में रखकर, देश की आबादी के 70 प्रतिशत किसानों को ध्यान में रखकर ये होता तो समझ में भी आता | भारत का किसान अपना गेंहू और कपास लेकर एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश में बेंच नहीं सकता लेकिन अमेरिका की कारगिल कंपनी उसी गेंहू को भारत के किसी भी गाँव में बेच देगी क्योंकि उसे अधिकार मिला हुआ है | पहले हमें अपने देश के अन्दर Liberalization करना होगा | पहले हमें घरेलु या आतंरिक उदारीकरण (Internal Liberalization) करना होगा और उसको 10-15 साल चलाना होगा | यही नीति जापान ने चलाई, यही नीति चीन ने चलाई, यही नीति अमेरिका ने चलाया, यही नीति फ़्रांस ने चलाया | मैं कहना ये चाहता हूँ कि अच्छी बातें तो हम सीखते नहीं और सीखेंगे क्या तो जिसे दुनिया में हमने फेल होते देखा, भारत में जो उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीति अपनाई गयी है वही नीति दक्षिण कोरिया ने अपनाया था, रूस ने अपनाया था, थाईलैंड ने अपनाया था , ब्राजील ने अपनाया था और सब के सब डूबे थे |
भारत में एक प्रधानमंत्री हुए मोरारजी देसाई उनकी सरकार ने भारत में जितने भी Zero Technology के क्षेत्र में MNC (Multi National Company) काम कर रहे थे उनमे से अधिकांश को भारत से भगाया था | ये Zero Technology वाले उत्पादों की संख्या लगभग 700 थी | और आप ध्यान दीजियेगा कि ये जितने भी MNC आये हैं वो उन्हीं क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं जिस क्षेत्र को मोरारजी देसाई की सरकार ने प्रतिबंधित किया था | मतलब जिन कंपनियों को मोरारजी देसाई की सरकार ने भगाया था सब की सब वापस आ गयी हैं | दूसरी बात, जितने भी MNC हैं वो कभी भी हमारे देश में आ के कोई technology के क्षेत्र में निवेश नहीं करते हैं | क्या कभी किसी कंपनी ने आ के यहाँ satellite बनाया या किसी ने मिसाइल बनाने में मदद की ? Technology इस देश में बाहर से जो भी आती है वो outdated /redundant होती है | 1991 में उदारीकरण (जिसे मैं उधारीकरण कहता हूँ ) के बाद जितने भी MoU (Memorandum of Understanding) sign हुए इस देश में सब के सब zero technology के क्षेत्र में हुए हैं | आप देखिएगा कि ये क्या बनाती हैं और बेचती हैं, ये बनाती है - साबुन,वाशिंग पावडर, आलू का चिप्स, टमाटर की चटनी, आम का आचार, बोतल का पानी, चोकलेट, बिस्कुट, पावरोटी, आदि, आदि | एक भी उदहारण कोई दे दे जब इन विदेशी कंपनियों ने तकनीक के क्षेत्र में निवेश किया हो | भारत ने अपने स्वदेशी तकनीक से सुपर कंप्यूटर बनाया, भारत ने अपने बूते मिसाइल बनाया, भारत ने अपने दम पर क्रायोजनिक इंजन बनाया, एक भी कंपनी ने भारत को तकनीक तो दूर सहयोग तक नहीं दिया | मारुती में जो सुजुकी का इंजन लगता है वो इंजन यहाँ नहीं जापान में बनता है, हीरो होंडा में जो इंजन लगता था वो जापान से बन के आता था , मतलब ये है कि अपने तकनीक को ये कम्पनियाँ शेयर नहीं करती वो कोई तकनीक जानते हैं तो आपको देते नहीं हैं और जब वही तकनीक उनके लिए पुरानी या बेकार हो जाती है तो वो उसे भारत में ला के dump कर देती हैं और हम खुश हो जाते हैं कि नयी तकनीक आयी है |
आप दुनिया में जितने भी विकसित देश देखेंगे वो सब स्वदेशी के बल पर आगे आये हैं | भारत को भी खड़ा करना है तो स्वदेशी के माध्यम से ही खड़ा किया जा सकता है | अगर आप विदेशियों पर निर्भर हैं या परावलम्बी है तो आप दुनिया में कभी कोई ताकत हासिल नहीं कर सकते | विदेशी वैसाखी पर, परावलम्बी होकर, विदेशी चिंतन से, विदेशी अर्थव्यवस्था की नीतियों की नक़ल से कोई देश कभी आगे नहीं आता, हर देश को आगे आने के लिए स्वदेशी का चिंतन, स्वदेशी का मनन और स्वदेशी का अनुपालन करना पड़ता है |
15 अगस्त 1947 को भारत ऐसा नहीं था, भारत के ऊपर एक रूपये का विदेशी कर्ज नहीं था, भारत का व्यापार घाटा एक रूपये का नहीं था | एक डौलर की कीमत भारत के एक रुपया के बराबर थी, एक पोंड की कीमत एक रुपया के बराबर थी और एक जर्मन मार्क की कीमत भी एक रुपया थी, भारत आजाद हुआ तो भारत को आगे की तरफ बढ़ना चाहिए था लेकिन हुआ उल्टा | हमारे नीति निर्धारकों ने भारत को पश्चिम के रास्ते आगे बढ़ाने का प्रयास किया जो कि किसी भी दृष्टिकोण से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती है | आज का भारत कर्ज में डूबा हुआ भारत है, भारत की हर प्राकृतिक चीज विदेशियों के हाथ में चली गयी है, अब तो भारत के लोग भी भारतीय नहीं रहे, जब कोई राष्ट्र की बात करता है तो लोग उसे ही गालिया देने लगते हैं | मैं भारत में पैदा हुआ और भारत की संस्कृति में पला-बढ़ा, और हमारे भारत की संस्कृति में मरने वाले के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है लेकिन मैं भगवान से ये प्रार्थना करता हूँ कि इन 64 सालों में जिन-जिन शासकों ने भारत को इस दुष्चक्र में पहुँचाया है, उनकी आत्मा को कभी शांति प्रदान ना करें |
जय हिंद
राजीव दीक्षित
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